कबीर के जीवन से संबंधित कुछ चमत्कारी घटनाएँ नीमा और नीरु का बालक कबीर का मिलना नीरु जुलाहा काशी नगरी में रहता था। एक दिन नीरु अपना गवना लेने के लिए, ससुराल गया। नीरु अपनी पत्नी नीमा को लेकर आ रहा था। रास्ते में नीमा को प्यास लगी। वे लोग पानी पीने के लिए लहर तालाब पर गए। पानी पीने के पश्चात्, नीमा जैसे ही उठी, उसने तालाब में कमल के पुष्पों पर एक अति सुंदर बालक को हाथ- पाँव मारते देखा। वह बहुत ही प्रसन्न हुई। वह तालाब के भीतर गई और बालक को अपनी गोद में लेकर बाहर आकर, नीरु के निकट गई और कहा :-
""नीरु नाम जुलाहा, गमन लिये घर जाय। तासु नारि बढ श्रागिनी, जल में बालक पाय।''
जुलाहे ने बालक को देखकर पूछा, यह किसका है और तुम कहाँ से उठाकर लाई हो ? नीमा ने कहा कि इसे उसने तालाब में पाया है। नीरु ने कहा, इसे जहाँ से लायी है, वहीं रख आ। मगर नीमा ने कहा कि इतने सुंदर बच्चे को मैं अपने पास रखुँगी। नीरु ने अपनी स्री से कहा ,मुझपर लोग हँसेंगे, कहेंगे कि गवना में मैं अपनी स्री के साथ, बालक ले आया। नीरु को तत्कालीन समाज के लोगों का डर लग रहा था। उसने कहा :-
""नीरु देख रिसवाई, बालक देतू डार। सब कुटम्ब हांसी करे, हांसी मारे परिवार।''
नीमा, नीरु की कोई बात मानने को तैयार नहीं हुई, तब नीरु उसको मारने- पीटने पर तत्पर हो गया और झिड़कियाँ देने लगा। नीमा अपनी जगह पर चुपचाप खड़ी सोच रही थी, इतने में बालक स्वयं ही बोल उठा,
"तब साहब हूँ कारिया, लेचल अपने धाम। युक्ति संदेश सुनाई हौं, मैं आयो यही काम। पूरब जनम तुम ब्राह्मन, सुरति बिसारी मौहि। पिछली प्रीति के कारने, दरसन दीनो तोहि।'
हे नीमा ! मैं तुम्हारे पूर्व जन्म के प्रेम के कारण तुम्हारे पास आया हूँ। तुम मुझको मत फेंको और अपने घर ले चलो। यदि तुम मुझको अपने घर ले गयी, तो मैं तुमको आवागमन ( जन्म- मरण ) के झंझट से छुड़ा करके, मुक्त कर दूँगा। तुम्हारे सारे दुख व संताप मैं हर लूँगा।
बालक के इस प्रकार बोलने से, नीमा निर्भय हो गयी और अपने पति से नहीं डरी। तब नीरु भी बालक को सुनकर कुछ नहीं बोला :- कर गहि बगि उठाइया, लीन्हों कंठ लगाया नारि पुरुष दोउ हरषिया, रंक महा धन पाय। वे दोनों प्रसन्नतापूर्वक बालक को लेकर अपने घर चले गए। बालक का नामकरण करने ब्राह्मण का आना
काशी के लोगों को जब मालूम हुआ कि नीरु अपनी पत्नी के साथ एक बालक भी लाया है, तो लोग जमा होकर हंसने लगे। नीरु ने तब बालक के बारे में सारी बातें सुनाई।
नीरु बालक का नाम धरवाने के लिए, ब्राह्मण के पास गया। जब ब्राह्मण अपना पत्रा लिए नाम के बारे में विचार ही रहा था कि बालक ने कहा, ऐ ब्राह्मण ! मेरा नाम कबीर है। दूसरा नाम रखने की चिंता मत करो। यह बात सुनकर वहाँ इकट्ठा सभी लोग चकित हो गए। हर तरफ इस बात की चर्चा होने लगी कि नीरु के घर में एक बच्चा आया है, वह बातें करता है। साखी :- कासी उमगी गुल श्रया, मोमिनका का घर घेर। कोई कहे ब्राह्मा विष्णु हे, कोई कह इंद्र कुबेर।। कोई कहन वरुन धर्मराय हे, कोई कोइ कह इस, सोलह कला सुमार गति, को कहे जगदीश।। काजी का नाम धरने आना
ब्राह्मण के चले जाने पर, नीरु ने काजी को बुलाया और बालक का नाम रखने के लिए कहा। काजी, कुरान और दूसरी किताबें खोलकर बालक का नाम देखने लगा। कुरान में काजी को चार नाम मिले - कबीर, अकबर, किबरा और किबरिया। ये चारों नाम देखकर काजी अपने दांतों के तले उँगलियाँ दबाने लगा। वह हैरान होकर बार- बार कुरान खोलकर देखता था, लेकिन समस्त कुरान काजी को इन्हीं चार नामों से भरा दिखाई देता था। काजी के मन में अत्यंत संदेह उत्पन्न होने लगा कि ये चारों नाम तो खुदा के हैं। काजी गंभीर चिंता में डूब गया कि क्या करना चाहिए। हमारे धर्म की प्रतिष्ठा दाव पर लग गई है। इस बात को गरीबदास ने इस प्रकार कहा है:- काजी गये कुरान ले, धर लड़के का नाव। अच्छर अच्छरों में फुरा, धन कबीर वहि जाँव सकल कुरान कबीर है, हरफ लिखे जो लेख। काशी के काजी कहै, गई दीन की टेक। जब काशी के सभी काजियों को यह समाचार मिला, तो सभी बड़े ही चिंतित हुए। वे कहने लगे कि अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि समस्त कुरान में कबीर ही कबीर है। सभी सोचते रहे, क्या उपाय किया जाए कि इस जुलाहे के पुत्र का इतना बड़ा नाम न रखा जा सके। पुनः सभी काजियों ने कुरान खोलकर देखा, तो अब भी वही चारों नाम दिखाई दे रहा था।
काजियों द्वारा नीरु को कबीर की हत्या कर देने की सलाह देना
काशी के काजी नाम के बारे में कोई दूसरा उपाय न ढ़ूढ सकें, तो आपस में विचार करके नीरु से कहा कि तू इस बालक को अपने घर के भीतर ले जाकर मार डाल, नहीं तो तू काफिर हो जाएगा। जुलाहा काजियों की बात में आ गया और वह कबीर को मार डालने के लिए अपने घर के भीतर ले गया। नीरु जुलाहे ने कबीर के गले पर छुरी मारना शुरु कर दिया। वह छुरी गले में एक ओर से दूसरी ओर पार निकल गयी, न कोई जख्म हुआ और न ही खून का एक बूंद भी निकला। इतना ही नहीं गर्दन पर छुरी का चिंह भी नहीं था। तब कबीर बोले कि, ऐ नीरु ! मेरा कोई माता- पिता नहीं है, न मैं जन्मता हैं, न मरता हूँ, न मुझको कोई मार सकता है, न मैं किसी को मार सकता हूँ और न ही मेरा शरीर है। तुमको दिखाई देने वाला शरीर तुम्हारी भावना मात्र शब्दरुपी है। यह बात सुनकर जुलाहा और जुलाहिन अत्यंत भयभीत हुए। इसके साथ- साथ समस्त काशी में हुल्लड़ मच गया कि बालक वार्तालाप करता है।
अंत में विवश होकर, काजियों ने बालक का नाम कबीर ही रखा। कोई इसको बदल न सका।
बालक कबीर का दूध पीना
बालक कबीर नीरु के घर में कुछ खाते- पीते नहीं थे। इसके बावजूद उसके शरीर में किसी तरह की कोई कमी नहीं हो रही थी। नीरु और नीमा को इस बात पर चिंता हुई। वे दोनों सभी लोगों से पूछते- फिरते कि बालक क्यों नहीं खाता है, उसको खाना खिलाने का क्या उपाय हो सकता है ? दुध पिवे न अन्न भखे, नहि पलने झूलंत। अधर अमान ध्यान में, कमल कला फूलंत।। नीमा और नीरु की बात सुनकर प्रत्येक व्यक्तियों ने अपने- अपने विचार दिये और कई ने तो प्रयोग भी करके देखा, पर कोई लाभ नहीं ।
अंत में किसी व्यक्ति ने नीरु को सलाह दी कि रामानंद जी से मिलना चाहिए। स्वामी रामानंद जी को स्थानीय लोग बड़े सिद्ध व त्रिकालदर्शी मानते थे। नीमा- नीरु स्वामी जी के आश्रम गये, किंतु इन लोगों को वहाँ प्रवेश नहीं मिला, क्योंकि स्वामी जी के आश्रम में हिंदूओं की भी बहुत- सी जातियों को प्रवेश नहीं मिलता था। कहा जाता है कि स्वामी जी शुद्रो को देखना भी नहीं चाहते थे। नीमा- नीरु तो मुसलमान थे। मिलने का कोई अवसर न देखकर इनदोनों ने अपनी बात दूसरे व्यक्ति के माध्यम से स्वामीजी के पास पहुँचायी। स्वामी जी ने ध्यान धर कर बतलाया कि एक कोरी ( कुमारी ) बछिया लाकर बालक की दृष्टि के सामने खड़ी कर दो। उस बछिया से जो दूध निकलेगा, वह दूध बालक को पिलाने से वह पियेगा। नीमा और नीरु ने ऐसा ही किया। उस दिन से बालक कबीर दूध पीने लगा।
कबीर के काल में, काशी में जलन के रोग का प्रकोप था। एक दिन बालक कबीर धूल- मिट्टी से खेल रहे थे। उसी समय एक वृद्धा स्री आयी और कबीर से अपने जलन- रोग का उपचार करने को बोली। बालक कबीर ने थोड़ी- सी धूल वृद्धा पर डाल दी। वह आरोग्य होकर खुशी- खुशी घर चली गई।
नीरु के घर मांस आने से कबीर का अंतःध्र्यान हो जाना
आस- पास के मुसलमानों ने, एक व्यक्ति को बहका कर नीरु के घर मेहमान बनाकर भेजा और उस मेहमान से कह दिया कि वह नीरु को मांस खिलाने को कहेगा। उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। वह मांस खिलाने का हठ करने लगा। नीरु के लाख समझाने और कहने पर भी वह नहीं माना। अंत में नीरु जाति- समाज के डर से मांस लाने को तैयार हो गया। किसी ने सच ही कहा है :-
""जाति- पाति हुर्मत के गाहक। तिनको डर उर पैठयो नाहक।।''
कबीर जान गए कि नीरु ने मांस लाया है। संध्या में सभी लड़के खेलकर अपने- अपने घर आये, किंतु कबीर नहीं आये। नीमा ने आस- पास के लड़कों से कबीर के बारे में पूछा, उनलोगों से कुछ पता न चल पाया, तो दोनों बहुत अधिक विकल हो गए। रातभर उन लोगों ने ना तो कुछ खाया- पिया और न ही सोए। भोर होते ही नीरु कबीर को खोजने के लिए निकल पड़ा। आस- पास के सभी नगर में नीरु ने कबीर को खोजा, किंतु कबीर का कुछ भी अता- पता न चला। अंत में नीरु पागलों की तरह हर आने- जाने वालों से कबीर के बारे में पूछता- पूछता, इधर- उधर भटकने लगा। नीरु को इस बात का डर था कि अगर वह कबीर को साथ लिए बिना घर जाएगा, तो नीमा प्राण त्याग देगी। वह स्वयं को दोषी ठहराते हुए, गंगाजी में डूबने के लिए कूद गया। नीरु गंगाजी की गहराइयों में गोता खाने लगा। अचानक उसे एहसास हुआ कि किसी ने उसका हाथ पकड़ कर बाहर कर दिया। नीरु ने जब आँख खोलकर देखा, तो सामने कबीर खड़े थे। वह बहुत प्रसन्न हुआ और कबीर साहब को गले लगाने, उसके नजदीक जाने लगा, किंतु कबीर साहब उससे दूर हो गये। वे कहने लगे, खबरदार ! मेरे शरीर को हाथ मत लगाना। तुम महाभ्रष्ट हो। कबीर के कहने का भाव समझ कर नीरु वात्सल्यभाव से बालक को फिर यह कहता हुआ पकड़ने का प्रयत्न करने लगा :-
कहु प्यारे काल्ह कहँ रहेऊ हम खोजत थकित होइ गयऊ।। कबीर साहब पीछे हटते हुए बोले :- कहहिं कबीर हम उहां न जाहीं तुम आभच्छ आनेहु घरमाही।। अब नीरु को कबीर की बात समझ में आई और बोला :- कहे नीरु कर जोरि अधीना अब तो चूक सही हम कीना।। अबकी चूक बकसिये मोही हाथ जारिके विनवौं तोहीं।। यह कहते हुए नीरु रोने लगा और नकरगड़ी करने लगा, तब कबीर साहब ने कहा :- ऐसे हम नहिं जैबे भाई घर आँगन सब लीपौ जाई।। बर्तन अशुच दूर सब करिहौ करि अस्नान वस्तर तन फेरिहौ।।
ऐसी करिहाँ जाई तुम, तौ पाइहो वहि ठाँउ। नाहीं तो घर को को कहै, ताजि जाऊँ यह गाउँ।। इतना सुनकर नीरु मन- ही- मन बहुत डरा और उसी क्षण घर पहुँचा तथा कबीर की आज्ञानुसार, सफाई करके कबीर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तब कबीर नीरु के घर प्रकट हुए और नीरु तथा नीमा से कहा :- नीरु सुनहु श्रवण दे, फेर जो ऐसी होई। तब कछु मेरी दोष नहीं, जैदो जन्म बिगोई।। दोनों स्री- पुरुष ने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और कहा अब ऐसी भूल कभी न होगी। आप हमको न त्यागें।
कबीर साहब की सुन्नत
कुछ दिनों के बाद, समस्त जुलाहे इकट्ठा होकर नीरु से कहने लगे कि अपने रसुल अल्लाह की आज्ञा के अनुसार, अब तुम अपने पुत्र का खतना ( मुसलमानी ) कराओ। एक- एक कर सभी जोलाहे नीरु के घर इकट्ठा हुए और काजी को बुलाया गया। काजी ने नाई को कबीर साहब का खतना करने का हुक्म दिया। नाई उस्तरा लेकर कबीर साहब के पास पहुँचा। कबीर साहब ने नाई को पाँच लिंग दिखलाए और नाई से कहा, इन पाँचों में से जिसको चाहो, तू काट ले। यह स्थिति देखकर नाई भयभीत हो गया और तुरंत वहाँ से भाग गया। इस प्रकार खतना न हो सका।
कुर्बानी
एक बार कबीर साहब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेल रहे थे। इसी बीच काजी ने गाय की कुर्बानी करने का प्रबंध किया, लेकिन कबीर साहब को इस बात की भनक मिल गई और खेलना छोड़ कर दौड़ते हुए गाय के पास पहुँच गए। आपने देखा कि काजी गाय को समाप्त कर चुका था। आपने काजी को अनेक उपदेश दिये, साथ- ही- साथ काजी को लज्जित भी किया। काजी लजाकर अपने अपराध के निर्मित क्षमा का प्रार्थी हुआ। आपने समाप्त गाय को जीवित कर दिया और अंतध्र्यान हो गए।
कबीर साहब को नीरु के घर से भगाने का प्रयत्न
नीरु के घर सिद्ध बालक को देखकर, उसकी प्रसिद्धि से आसपास के लोग नीरु से जलते थे। नीरु के द्वारा अपने घर में सदा माँस न लाने की प्रतिज्ञा कर लेने से, मांसाहारी मुसलमान उससे बहुत क्षुब्ध हो गये थे। इन सभी मुसलमानों ने उसे धर्म भ्रष्ट होते, समझकर नीरु को सुधारने की फिक्र करना प्रारंभ कर दिया। काशी के जोलहन मिली, आनि कियों परपंच। सबै कहैं नीरु तुम क्या बैठे निश्चिन्त।
बेटे की तुम सुनति कराओ पंचों का तुम हाथ पुलाओ।। काजी मुलना को बुलवाओ शैनी और शराब मँगाओ।। इस प्रकार की उनकी सुनकर नीरु ने कान पर हाथ रखकर कहा :- नरु कहे सुन्नति बखाओ पै नहिं गैनी गला कटाओ।। नीरु की यह बात सुनकर उसकी जाति बिरादरी के लोगों ने उससे क्रोधित होकर कहा :- जोलहा सब तब कहैं रिसाई। वया नीरु तुम अकिल गवाँई।। अपने कुल की रीति न छोड़ो। कुल परिवार करिहें सब भांडो।। गैनी बिना कैसे बनै, मुसलमान की रीति। पीर पैगम्बर रुठिहैं, खता खाहुगे मति।। यह सुनकर नीरु कहा :- नीरु कहै सुनो रे भाई। ऐसो करौं तो पूत गँवाई।। एक बार घर आमिष आना, तेहि कारण सुत आया बिगाना।।
क्या रुठे क्या खुशी हो, पीर पैगम्बर झारि। गौधात मैं ना करो, नीरु कहै पुकारि।। सभी जुलाहे कबीर साहब के अंतध्र्यान होने को जान चुके थे। वह यह भी जानते थे कि नीरु के घर मांस होने से कबीर साहब अंतध्र्यान हो जाते हैं, इसलिए सब विद्वेशियों और पक्षपातियों ने मिलकर नीरु को बहकाकर उसके द्वारा गोहत्या कराना चाहा, जिससे कबीर साहब नीरु के घर से रुष्ट होकर चले जाए। किंतु जब सब जुलाहों तथा काजी मुसलमानों ने देखा कि नीरु उनकी चाल में नहीं पड़ने वाला है, तो वह दूसरी चाल चले और छल से कहा :- जोलहन मिली छल से कहयो, और करु सब साज नीरु तुमरे कारने गैनी आयड बाज।। उनलोगों ने विचार किया कि नीरु के अनजाने में गाय जबह करेंगे, जिसको देखकर कबीर वहाँ से भाग जाएँ। काजी सहित अन्य मुसलमानों ने अवसर पाकर चुपचाप गाय मंगाकर, जबह कर दिया। नीरु इस काण्ड से एकदम अज्ञान थे। यद्यपि उन दुष्टों के इस गुप्त काण्ड को किसी ने नहीं जाना, परंतु अंतध्र्यानी सर्वज्ञ कबीर साहब ने इस बात को जान लिया। वह बच्चों के साथ खेल रहे थे। खेल छोड़कर वहाँ से दौड़े और गाय हत्या के स्थान पर पहुँचे तथा काजी से कहा :- हो काजी यह किन फरमाये, किनके माता तुम छुरी चलाये। जिसका छीर जु पीजिए तिसको कहिए माए।। तिसपर छुरी चलाऊँ, किन यह दिया दिढाय।। यह सुन काजी ने उत्तर दिया :- सुन कबीर बडन सो, होत आई यह बात। गोस कुतुब औ औलिया, हजरत नबी जमात।। कबीर साहब ने काजी की बात सुनकर कहा, ऐ काजी ! और मुल्ला तथा दूसरे मुसलमानों! तुमलोग गफलत में पड़कर नाना प्रकार से जीवों को सताने को धर्म मानते हो। वास्तव में यह तुमको नर्क तक ले जाने वाला रास्ता है। आदम आदि सुधि नहिं पायी । मामा हौब्बा कहते आयी।। तब नहिं होते तुरुक औ हिंदू। मायको रुधिन पिता को बिंदू।। तब नहिं होते गाय कसाई। तब बिसमिल किन फरमायी।। तब नहिं रहो कुल औ जाति। दोजख विहिरत कहाँ उत्पाती।। मन मसले की खबर न जाने। मति भुलान हो छीन बखाने।।
संयागेकर गुण रखे, बिन जोगे गुण जाय। जिह्मवा स्वाद कारने, क्रीन्हे बहुत उपास।। कबीर साहब की ये बातों को सुनकर काजी मुल्ला सभी बहुत क्रोधित हुए और कहने लगे कि नीरु का यह लड़का काफिर हो गया है। ये नबी पैगम्बर पीर औलिया सबको तुच्छ समझता है और स्वयं को बड़ा ज्ञानी। उनके क्रोध को देखकर नीमा और नीरु दोनों बहुत डर गये, किंतु कबीर साहब ने निर्भय होकर विनयपूर्वक काजी से पूछने लगे :- केहि कारण तुम इहवां आयौ। यहि जगह किन तुमहिं बुलाया काजी ने कहा :- जोलहन मोहिं बुलायऊ, तोहो सुन्नत काज। अब तुम मुस्लिम होयके, रोजा करहु निमाज।। कलमा पढो नबी का, छोड़हु कुफुर की बात। तब तुम बहिश्तहि जाहुगे बैठहु नबी जमात।। काजी की बात सुनकर कबीर साहब ने कहा :- जिन्ह कमला कलिमांहि पढ़ाया। कुदरत खोज उनहु नंहि पाया। करमत करम करै करतूती। वेद किताब भाया सब रीती।। कमरत सो जों गाय औतरिया। करमत सो जो नामसिं धरिया। करमत सुन्निति और जनेऊ। हिंदू तुरुक न जाने भेऊ।।
पानी पवन संजोयके, रचिया इ उत्पात। सून्द्यहिं सुरत समानिया, कासो कहिये जात।। काजी, मुल्लाहों व कबीर के आपस में बहस को देखकर वहाँ भीड़ जमा हो गयी। भीड़ में से एक हिंदू ने कबीर से कहा कि तुमको अपने धर्म का नियम मानना चाहिए। काजी और मुल्ला, जो कि धर्म के रक्षक और उपदेशक हैं, उनकी आज्ञा से तुमको अपनी सुन्नत करवा लेनी चाहिए। जैसे देखो हमारे धर्म में भी प्रत्येक बालक की जनेऊ होती है, वरन् उसको शूद्र के तुल्य माना जाता है। वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने एक मत होकर कहा कि इसको पकड़ कर बाँधों और सुन्नत कर दो। काजी ने लोगों की बातों से सहमत होकर कुछ मुस्टंडे मुसलमानों को आज्ञा दिया कि कबीर को रस्सी से बाँधों। काजी के आज्ञानुसार बाँधकर, सभी लोग नाई की खोज करने लगे। नाई पहले ही भयभीत होकर भाग चुका था। काजी घबरा कर इधर- उधर भागता हुआ नाई को ढ़ूढ़ रहा था। उस समय काजी को कबीर साहब ने कहा :- काजी तुम कौन किताब बखाना। झंखत बकत रहो निसि बासर मति एको नहि जाना।। सकति न मानो सुनति करत हो मैं न बेदांगा भाई। जो खुदाय तुव सुनति करत तो आप काटि किन आई।। इतना कहकर कबीर साहब उठ खड़े हुए। उनके शरीर से बंधा सभी बाँध खुद ही खुलकर गिर पड़ा। रस्सी को टूटता देखकर, सभी लोग आश्चर्य चकित हो गये। कबीर ने काजी से कहा :- कहे कबीर सुनोहो काजी ! यह सब अहे शैतानी बाजी। छि: ! छि: ! क्या इसी को मुसलमान कहते हैं। यदि तरीका जो मुसलिम होई। तौपै दोजख परै न कोई।। कबीर ने मुस्कराते हुए काजी से कहा, तुमको स्वयं मुसलमानी का पता नहीं है और मुझको मुसलमान बनाने आये हो :-- तुम तो मुस्लिम भये नहिं भाई। कैसे मुस्लिम करहू आयी। काजी के करतूत और उनकी बयानी को देखकर कबीर ने एक बार फिर कहा :- भूला वे अहमक नदाना। हरदम रामहिं न जाना।। टेक।। बरबस आनिके गाय पछाए, गला काहि जिख आप लिया। जीता जीव मुर्दा करि डाला, तिसको कहत हलाल किया। जाहि मांस को पाक कहत है, ताकि उत्पत्ति सुन भाई। रज बीरज सो मास उपाना, सोई नापाक तुम खाई। अपनो दोष कहत नाहिं अहमक, कहत हमारे बड़ेन किया। उनकी खुब तुम्हारी गर्दन, जिन तुमको उपदेश दिया। सियाही गयी सुफैदी आयी, दिल सुकेद अजंहु न हुआ। रोजा नामाज बांग बया कीजै, हजुरे भीतर बैठ मुआ। पण्डित वेद पुरान पढ़ै, मुलना पढ़ै जो कुराना। कहै कबीर वे नरके गये, गिन हरदम रामहिं ना जाना। इतना कहकर कबीर साहब मरी हुई गाय के पास गये :- बहुविधि से काजी को समझायी। महापाप जीव घात बहायी।ं फिर कबीर ग ढिए जायी। मरी गाय तिहिं काल जिवाभी।। जैसे ही कबीर साहब ने गाय के पीठ पर हाथ फेरा, गाय जीवित होकर उठ बैठी। कबीर साहब ने गाय को गंगा में स्नान कराकर, नगर में स्वतंत्र घूमने को छोड़ दिया और स्वयं भी नीरु और नीमा के घर को उसी दिन से छोड़ दिया। कई दिनों तक नीरु और नीमा को कबीर साहब का दर्शन न हुआ। ये दोनों उनके विरह में, बहुत अधिक विकल होकर पागलों की तरह जहाँ- तहाँ घूमने लगे। अंत में करुणामय कबीर ने करुणा करके दोनों को बाहर किसी दूसरे स्थान पर दर्शन दिया। फिर भी उनके घर नहीं गये। कुछ भक्तों ने काशी से बाहर एक कुटी बांध दी। वे इसी कुटी में रहने लगे। कुछ दिनों के बाद नीमा और नीरु भी वहीं आकर रहने लगे। बालक कबीर का काफिर की व्याख्या करना
बालक कबीर साहब जब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेलते थे, तब सदैव "राम- राम', "गोविंद- गोविंद', "हरि- हरि' कहा करते थे। यह सुनकर मुसलमान लोग कहते थे कि यह लड़का कट्टर काफिर होगा। बालक कबीर ने उन मुसलमानों को जवाब दिया कि :-
-- काफिर वह होगा, जो दूसरों का माल लूटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो कपट भेष बनाकर संसार को ठगता होगा। -- काफिर वह होगा, जो निर्दोष जीवों को काटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मांस खाता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मदिरा पान करता होगा। -- काफिर वह होगा, जो दुराचार तथा बटमारी करता होगा। फिर मैं कैसे काफिर हूँ ?
उसी समय आपने यह साखी कहा - गला काटकर बिसमिल करें, ते काफिर बेबूझ। औरन को काफिर कहै, अपनी कुफ्र न सूझ।। बालक कबीर वैष्णव के रुप म ें
बालक कबीर ने एक बार अपने गले में यज्ञोपवीत व माथे पर तिलक डाल लिया। ब्राह्मणों ने देखा तो कहने लगे कि यह तो मेरा धर्म है, तुम्हारा धर्म तो दूसरा है। तूने यह वैष्णव वेष कैसे बना लिया ? और तू ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' क्यों कहता है ? यह तो तुम्हारा धर्म नहीं है। तब कबीर साहब ने उनलोगों को उत्तर देते हुए कहा कि गोविंद व राम तो हमारे हृदय में बसे हुए हैं। तुम्हारे कैसे हुए ? तुम गीता पढते हो, परंतु सांसारिक धन के लिए सदैव द्वार- द्वार दौड़ते ही रहते हो और हम तो गोविंद के अतिरिक्त अन्य किसी को जानते ही नहीं हैं। आपने ये शब्द कहा:-
मेरी लिह्मवा बिस्तू लैनाचरायन हिरदे बसे गोविंद। जम द्वारे जब पूछि परे तब का करे मुकुंदा।। टेक।।
हम घर सूत तनै नित ताना, कंठ जनेऊ तुम्हारे। तुम नित बांचत गीता गायत्री, गोविंद हिरदे हमारे।। हम गोरु तुम ग्वाल गुसाई, जनम जनम रखवहो। कबहिं न बार सो पार चराये, तुम कैसे खसम हमारे।। तुम बामन हम काशी के जुलहा, बूझो मेरा गयाना। तुम खोजत नित भुपति राजे, हरि संग मेरा ध्याना।। मुसलमानों और हिंदूओं, दोनों का अपने- अपने धर्म के पैगम्बर व भगवान के नाम पर अड़े रहने और ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' को अपना भगवान कहने पर कबीर ने कहा :- भाई दुई जगदीश कहांते आये कौने मति भरमाया। अल्लाह राम करीमा केलव हरि हजरत नाम धराया।। गहना एक कनक ते बनता तामें भख न दूजा। कहव कहन सुनत को दुई कर आये इक निमाज इक पूजा।। वहि महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिये। कोई हिंदू काई तुरक कहखे एक जमीं पर रहिये।। वेद किताब पढ्ैं व खुतबा वे मुलना वे पांडे। विगत विगत कै नाम धरावें एक भटिया के भांडे।। कहै कबीर वे दूनो भूले रामे किन्हु न पाया। वे खसिया व गाय कटावें वादे जन्म गवांया।। कबीर साहब का रामानंद स्वामी वैष्णव के पास जाना
कबीर साहब जब पाँच वर्ष के हुए, तो आपने स्वयं को शिष्य बनाने के लिए रामानंद स्वामी के पास समाचार भेजा, लेकिन रामानंद स्वामी ने कबीर को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया, क्योकि स्वामी रामानंद जी कबीर को शुद्र मानते थे।
कबीर वचन रामानंद गुरुदिच्छा दीजे। गुरुदच्छिना हमसे लीजो।। रामानंद वचन सूद्र के कान न लगा भाई। तीन लोक में मोर बडायी। स्वामी रामानंद जी के स्पष्ट इनकार कर दिये जाने के पश्चात, कबीर साहब वहाँ से चुपचाप लौट आये। कबीर का एक छोटा लड़का होकर स्वामी के पथ में पड़ना
रामानंद स्वामी प्रत्येक रात के अंत भाम में गंगा स्नान करने के लिए जाते थे। कबीर साहब ने निश्चय किया कि जब स्वामी जी स्नान करने जाएँगे, तो छोटा बच्चा बनकर उनके मार्ग में सो जाएँ। कबीर साहब ने ऐसा ही किया। रामानंद स्वामी जी खड़ाऊँ पहनकर स्नान करने के लिए आए। जैसे ही वह सीढ़ी पर पहुँचे कि उनकी खड़ाऊँ से बालक के सिर में ठोकर लग गई।
स्वामी रामानंद का कबीर साहब को शिष्य स्वीकार करना कबीर साहब कुछ लोगों के साथ रामानंद स्वामी के ठिकाने पर आये। रामानंद स्वामी उस समय किसी से नहीं मिलते थे और नहीं किसी को देखते थे। लोगों ने कबीर साहब को परदे के पीछे खड़ा कर दिया। कबीर ने स्वामी से कहा कि स्वामी जी आपने मुझे अपना शिष्य बना लिया है? स्वामी जी यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और पूछा कब ? कबीर साहब ने गंगा नदी के स्नान को जाते हुए सीढियों पर स्वामी के खड़ाऊँ की चोट को विस्तारपूर्वक बताया और कहा कि आपने मेरे माथे पर हाथ रखकर राम- राम पढ़ने को कहा था। मैं उसी दिन से आपको गुरु मानकर ""राम- राम'' पढ़ता रहता हूँ। रामानंद स्वामी जी ने कहा उस समय तो बहुत छोटा बच्चा सीढियों पर मिला था। कबीर साहब ने उत्तर दिया कि स्वामी जी वह मैं ही था और वैसा ही बच्चा बनकर स्वामी के गुफा के भीतर गए और उनके चरणों पर गिरकर कहने लगे कि मैं उस समय ऐसा ही था। कबीर साहब को इस तरह देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तब स्वामी जी के सबसे बड़े चेले अनंतानंद ने स्वामी जी को समझाया और कहा कि यह बालक मनुष्य नहीं, बल्कि सिद्ध का अवतार है। इस तरह स्वामी जी मान गए और कबीर साहब को अपना शिष्य बना लिया। कबीर साहब को गुरु के समान मानना स्वामी रामानंद जी के सभी शिष्य कबीर साहब को गुरु के समान मानते थे। सभी आपको अत्यंत मर्यादा एवं प्रतिष्ठा दिया करते थे। स्वयं आप भी सभी गुरु भाई से नितांत ही नम्रतापूर्वक मिलते थे। स्वामी रामानंद जी के सभी चौदह सौ चौरासी शिष्य आपके आज्ञाकारी थे और आपको सभी का सरदार बनाया गया था।
कबीर साहब निरक्षर थे। उन्होंने अपने निरक्षर होने के संबंध में स्वयं "कबीर- बीजक' की एक साखी मे बताया है। जिसमें कहा गया है कि न तो मैं ने लेखनी हाथ में लिया, न कभी कागज और स्याही का ही स्पर्श किया। चारों युगों की बातें उन्होंने केवल अपने मुँह द्वारा जता दिया है :- मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ। चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।। संत मत के समस्त कवियों में, कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक माने जाते हैं। उन्होंने कविताएँ प्रतिज्ञा करके नहीं लिखी और न उन्हें पिंगल और अलंकारों का ज्ञान था। लेकिन उन्होंने कविताएँ इतनी प्रबलता एवं उत्कृष्टता से कही है कि वे सरलता से महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं। उनकी कविताओं में संदेश देने की प्रवृत्ति प्रधान है। ये संदेश आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणा, पथ- प्रदर्शण तथा संवेदना की भावना सन्निहित है। अलंकारों से सुसज्जित न होते हुए भी आपके संदेश काव्यमय हैं। तात्विक विचारों को इन पद्यों के सहारे सरलतापूर्वक प्रकट कर देना ही आपका एक मात्र लक्ष्य था :- तुम्ह जिन जानों गीत हे यहु निज ब्रह्म विचार केवल कहि समझाता, आतम साधन सार रे।। कबीर भावना की अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, जीवन का संवेदनशील संस्पर्श करनेवाले तथा मर्यादा के रक्षक कवि थे। आप अपनी काव्य कृतियों के द्वारा पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना चाहते थे। हरि जी रहे विचारिया साखी कहो कबीर। यौ सागर में जीव हैं जे कोई पकड़ै तीर।। कवि के रुप में कबीर जीव के अत्यंत निकट हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में सहजता को प्रमुख स्थान दिया है। सहजता उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी शोभा और कला की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है। उनके काव्य का आधार यथार्थ है। उन्होंने स्वयं स्पष्ट रुप से कहा है कि मैं आँख का देखा हुआ कहता हूँ और तू कागज की लेखी कहता है :- मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी। वे जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज- सुधारक एवं प्रगतिशील दार्शनिक तथा आवश्यकतानुसार कवि थे। उन्होंने अपनी काव्य रचनाएँ इस प्रकार कही है कि उसमें आपके व्यक्तित्व का पूरा- पूरा प्रतिबिंब विद्यमान है। कबीर की प्रतिपाद्य शैली को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा गया है :- इनमें प्रथम रचनात्मक, द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अंतर्गत सतगुरु, नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि पर व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किया गया है। दूसरे पक्ष में वे आलोचक, सुधारक, पथ- प्रदर्शक और समन्वयकर्ता के रुप में दृष्टिगत होते हैं। इस पक्ष में उन्होंने चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कनक, कामिनी आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं। काव्यरुप एवं संक्षिप्त परिचय :- कबीर की रचनाओं के बारें में कहा जाता है कि संसार के वृक्षों में जितने पत्ते हैं तथा गंगा में जितने बालू- कण हैं, उतनी ही संख्या उनकी रचनाओं की है :- जेते पत्र वनस्पति औ गंगा की रेन। पंडित विचारा का कहै, कबीर कही मुख वैन।। विभिन्न समीक्षकों तथा विचारकों ने कबीर के विभिन्न संग्रहों का अध्ययन करके निम्नलिखित काव्यरुप पाये हैं :- 1. साखी 2. 3. पद 4. 5. रमेनी 6. 7. चौंतीसा 8. 9. वावनी 10. 11. विप्रमतीसी 12. 13. वार 14. 15. थिंती 16. 17. चाँवर 18. 19. बसंत 20. 21. हिंडोला 22. 23. बेलि 24. 25. कहरा 26. 27. विरहुली 28. 29. उलटवाँसी 30.
साखी रचना की परंपरा का प्रारंभ गुरु गोरखनाथ तथा नामदेव जी के समय से प्राप्त होता है। साखी काव्यरुप के अंतर्गत प्राप्त होने वाली, सबसे प्रथम रचना गोरखनाथ की जोगेश्वरी साखी है। कबीर की अभिव्यंजना शैली बड़ी शक्तिशाली है। प्रतिपाद्य के एक- एक अंग को लेकर इस निरक्षर कवि ने सैकड़ों साखियों की रचना की है। प्रत्येक साखी में अभिनवता बड़ी कुशलता से प्रकट किया गया है। उन्होंने इसका प्रयोग नीति, व्यवहार, एकता, समता, ज्ञान और वैराग्य आदि की बातों को बताने के लिए किया है। अपनी साखियों में कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग सर्वाधिक किया है। कबीर की साखियों पर गोरखनाथ और नामदेव जी की साखी का प्रभाव दिखाई देता है। गोरखनाथ की तरह से कबीर ने भी अपनी सखियों में दोहा जैसे छोटे छंदों में अपने उपदेश दिये। संत कबीर की रचनाओं में साखियाँ सर्वाधिक पायी जाती है। कबीर बीजक में ३५३ साखियाँ, कबीर ग्रंथ वाली में ९१९ साखियाँ हैं। आदिग्रंथ में साखियों की संख्या २४३ है, जिन्हें श्लोक कहा गया है। प्राचीन धर्म प्रवर्त्तकों के द्वारा, साखी शब्द का प्रयोग किया गया। ये लोग जब अपने गुरुजनों की बात को अपने शिष्यों अथवा साधारणजनों को कहते, तो उसकी पवित्रता को बताने के लिए साखी शब्द का प्रयोग किया करते थे। वे साखी देकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि इस प्रकार की दशा का अनुभव अमुक- अमुक पूर्ववर्ती गुरुजन भी कर चुके हैं। अतः प्राचीन धर्म प्रवर्तकों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को शिष्यों के समक्ष, साक्षी रुप में उपस्थित करते समय जिस काव्यरुप का जन्म हुआ, वह साखी कहलाया। संत कबीर की साखियाँ, निर्गुण साक्षी के साक्षात्कार से उत्पन्न भावोन्मत्तता, उन्माद, ज्ञान और आनंद की लहरों से सराबोर है। उनकी साखियाँ ब्रह्म विद्या बोधिनी, उपनिषदों का जनसंस्करण और लोकानुभव की पिटारी है। इनमें संसार की असारता, माया मोह की मृग- तृष्णा, कामक्रोध की क्रूरता को भली- भांति दिखाया गया है। ये सांसारिक क्लेश, दुख और आपदाओं से मुक्त कराने वाली जानकारियों का भण्डार है। संत कबीर के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन उनकी साखियाँ हैं। साखी आंखी ग्यान को समुझि देखु मन माँहि बिन साखी संसार का झगरा छुटत नाँहि।। विषय की दृष्टि से कबीर साहब की सांखियों को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :- १. लौकिक भाव प्रधान २. परलौकिक भाव प्रधान लौकिक भाव प्रधान साखियाँ भी तीन प्रकार की है :- १. संतमत स्वरुप बताने वाली २. पाखण्डों का विरोध करने वाली ३. व्यवहार प्रधान संतमत का स्वरुप बताने वाली साखियाँ :- कबीर साहब ने अपनी कुछ साखियों में संत और संतमत के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं :- निर बेरी निहकामता साई सेती नेह। विषिया सूँन्यारा रहे संतरि को अंग एह।। कबीर साहब की दृष्टि में संत का लक्ष्य धन संग्रह नहीं है :- सौंपापन कौ मूल है एक रुपैया रोक। साधू है संग्रह करै, हारै हरि सा थोक। संत व बांधै गाँठरी पेट समाता लेई। आगे पीछे हरि खड़े जब माँगै तब दई। संत अगर निर्धन भी हो, तो उसे मन छोटा करने की आवश्यकता नहीं है :- सठगंठी कोपीन है साधू न मानें संक। राम अमल माता रहे गिठों इंद्र को रंक। कबीर साहब परंपरागत रुढियों, अंधविश्वासों, मिथ्याप्रदर्शनों एवं अनुपयोगी रीति- रिवाजों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिंदू- मुसलमान दोनों में ही फैली हुई कुरीतियों का विरोध अपनी अनेक साखियों में किया है। व्यवहार प्रधान साखियाँ :- कबीर साहब की व्यवहार प्रधान साखियाँ, नीति और उपदेश प्रधान है। इसमें संसभू के प्रत्येक क्षेत्र में उचित व्यवहार की रीति बताई गई हैं। इन साखियों में मानव मात्र के कल्याणकारी अनुभव का अमृत छिपा हुआ है। पर निंदा, असत्य, वासना, धन, लोभ, क्रोध, मोह, मदमत्सर, कपट आदि का निषेध करके, वे सहिष्णुता, दया, अहिंसा, दान, धैर्य, संतोष, क्षमा, समदर्शिता, परोपकार तथा मीठे वाचन आदि के लिए आग्रह किया गया है। वे त्याज्य कुकर्मों को गिना कर बताते है :- गुआ, चोरी, मुखबरी, व्याज, घूस, परमान। जो चाहे दीदार को एती वस्तु निवार।। विपत्ति में धैर्य धारण करने के लिए कहते है :- देह धरे का दंड है सब काहू पै होय। ज्ञानी भुगतै ज्ञानकरि मूरख भुगतै रोय।। वह अपनी में बाबू संयम पर बल देते हुए कहते हैं :- ऐसी बानि बोलिए मन का आपा खोय। ओख को सीतल करै, आपहु सीतल होय। पारलौकिक भाव प्रधान साखिया ँ संत कबीर साहब इस प्रकार की अपनी साखियों में नैतिक, अध्यात्मिक, सांसारिक, परलौकिक इत्यादि विषयों का वर्णन किया है। कुछ साखियाँ :- राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पं तासु। नैन न आवै नींदरी, अंग न जायें मासु। बिन देखे वह देसकी, बात कहे सो कूर। आपुहि खारी खात है, बैचत फिरे कपूर। पद ( शब्द ) संत कबीर ने अपने अनुभवों, नीतियों एवं उपदेशों का वर्णन, पदों में भी किया है। पद या शब्द भी एक काव्य रुप है, जिसको प्रमुख दो भागों में बाँटा गया है :- -- लौकिक भाव प्रधान -- परलौकिक भाव प्रधान लौकिक भाव प्रधान पदों में सांसारिक भावों एवं विचारों का वर्णन किया गया है। इनको भी दो भागों में विभाजित किया गया है :- -- धार्मिक पाखण्डों का खंडन करने वाले पद। -- उपदेशात्मक और नीतिपरक पद। संत कबीर जातिवाद, ऊँच- नीच की भावना एवं दिखावटी धार्मिक क्रिया- कलापों के घोर विरोधी थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों की प्रचलित मान्यताओं तथा उपासना पद्धतियों की अलग- अलग आलोचना की है। वे वेद और कुरान के वास्तविक ज्ञान और रहस्य को जानने पर बल देते हैं :- वेद कितेब कहौ झूठा। झूठा जो न विचारै।। झंखत बकत रहहु निसु बासर, मति एकौ नहिं जानी। सकति अनुमान सुनति किरतु हो, मैं न बदौगा भाई।। जो खुदाई तेरि सुनति सुनति करतु है, आपुहि कटि कयों न आई। सुनति कराय तुरुक जो होना, औरति को का कहिये।।
रमैनी भी संत कबीर द्वारा गाया गया काव्यरुप है। इसमें चौपाई दो छंदों का प्रयोग किया गया है। रमैनी कबीर साहब की सैद्धांतिक रचनाएँ हैं। इसमें परमतत्व, रामभक्ति, जगत और ब्रह्म इत्यादि के बारे में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। जस तू तस तोहि कोई न जान। लोक कहै सब आनाहि आना। वो है तैसा वोही जाने। ओही आहि आहि नहिं आने।। संत कबीर राम को सभी अवतारों से परे मानते हैं :- ना दसरथ धरि औतरि आवा। ना लंका का राव सतावा।। अंतर जोति सबद एक नारी। हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।। ते तिरिये भग लिंग अनंता। तेउ न जाने आदि औ अंतर।। एक रमैनी में वे मुसलमानों से प्रश्न पूछते हैं। दर की बात कहाँ दरबेसा। बादशाह है कवने भेष। कहां कंच कहँ करै मुकाया। मैं तोहि पूंछा मुसलमाना।। लाल गरेद की नाना बना। कवर सुरहि को करहु सलाया।। काजी काज करहु तुम कैसा। घर- घर जबह करवाहु भैसा।।
चौंतीसा नामक काव्यरुप केवल "कबीर बीजक' में ही प्रयोग किया गया है। इसमें देवनागरी वर्णमाला के स्वरों को छोड़कर, केवल व्यंजनों के आधार पर रचनाएँ की गई हैं :- पापा पाप करै सम कोई। पाप के करे धरम नहिं होई। पापा करै सुनहु रे भाई। हमरे से इन किछवो न पाई। जो तन त्रिभुवन माहिं छिपावै। तत्तहि मिले तत्त सो पावै। थाथा थाह थाहि नहिं जाई। इथिर ऊथिर नाहिं रहाई।
बावनी वह काव्यरुप है, जिसकी द्विपदियों का प्रारंभ नागरी लिपि के बावन वर्णों में से प्रत्येक के साथ क्रमशः होता है। बावनी को इसके संगीतनुसार गाया जाने का रिवाज पाया जाता है। विषय की दृष्टि से यह रचनाएँ अध्यात्मिकता से परिपूर्ण ज्ञात होता है। ब्राह्मण होके ब्रह्म न जानै। घर महँ जग्य प्रतिग्रह आनै जे सिरजा तेहि नहिं पहचानैं। करम भरम ले बैठि बखानै। ग्रहन अमावस अवर दुईजा। सांती पांति प्रयोजन पुजा।।
सप्ताह के सातों वारों ( दिनों ) के नामों को क्रमशः लेकर, की गई उपदेशात्मक रचनाओं वालों काव्यरुप को "वार" कहा गया है। यह काव्य रुप की रचना केवल आदिग्रंथ में ही प्राप्त होती है।
इस काव्य रुप का प्रयोग तिथियों के अनुसार छंद रचना करके साधना की बातें बताने के लिए किया गया है। संत कबीर का यह काव्य रुप भी केवल आदिग्रंथ में पाया जा सकता है।
चाँचर बहुत प्राचीन काल से प्रचलित काव्यरुप है। कालीदास तथा बाणभ की रचनाओं में चर्चरी गान का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में इसको चर्चरी या चाँचरी कहा जाता था। संत कबीर ने भी अपनी रचनाओं में इसको अपनाया है। "कबीर बीजक' में यह काव्य रुप प्राप्त होता है। कहा जाता है कि कबीर के समय में इसका पूर्ण प्रचलन था। कबीर ने इसका प्रयोग अध्यात्मिक उपदेशों को साधारण जन को पहुँचनें के लिए किया है। जारहु जगका नेहरा, मन का बौहरा हो। जामें सोग संतान, समुझु मन बोरा हो। तन धन सों का गर्वसी, मन बोरा हो। भसम- किरिमि जाकि, समुझु मन बौरा हो। बिना मेवका देव धरा, मन बौरा हो। बिनु करगिल की इंट, समुझु मन बौरा हो।
संत कबीर साहब का एक अन्य काव्यरुप बसंत है। "बीजक', "आदिग्रंथ' और "कबीर ग्रंथावली' तीनों में इसको देखा जा सकता है। बसंत ॠतु में, अभितोल्लास के साथ गाई जाने वाली पद्यों को फागु, धमार, होली या बसंत कहा जाता है। लोकप्रचलित काव्यरुप को ग्रहण कर, अपने उद्देश्य को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए किया है। एक पत्नी अपने पति की प्रशंसा करते हुए कहती है :- भाई मोर मनुसा अती सुजान, धद्य कुटि- कुटि करत बिदान। बड़े भोर उठि आंगन बाढ़ु, बड़े खांच ले गोबर काढ़ बासि- भात मनुसे लीहल खाय, बड़ धोला ले पानी को गाय अपने र्तृया बाधों पाट, ले बेचौंगी हाटे हाट कहँहि कबिर ये हरिक काज, जोइया के डिंग रहिकवनि लाज हिंडोला सावन के महिने में महिलाएँ हिंडोला झुलने के साथ- साथ, गीत भी गाती है। इसी गीत को अनेक स्थानों पर हिंडोला के नाम से जाना जाता है। संत कबीर ने इसी जनप्रचलित काव्यरुप को अपने ज्ञानोपदेश का साधन बनाया है। वह पूरे संसार को एक हिंडोला मानते हैं। वे इस प्रकार वर्णन करते हैं :- भ्रम का हिंडोला बना हुआ है। पाप पुण्य के खंभे हैं। माया ही मेरु हैं, लोभ का मरुषा है विषय का भंवरा, शुभ- अशुभ की रस्सी तथा कर्म की पटरी लगी हुई है। इस प्रकार कबीर साहब समस्त सृष्टि को इस हिंडोले पर झुलते हुए दिखाना चाहते हैं :- भरम- हिंडोला ना, झुलै सग जग आय। पाप- पुण्य के खंभा दोऊ मेरु माया मोह। लोभ मरुवा विष भँवरा, काम कीला ठानि। सुभ- असुभ बनाय डांडी, गहैं दोनों पानि। काम पटरिया बैठिके, को कोन झुलै आनि। झुले तो गन गंधर्व मुनिवर,झुलै सुरपति इंद झुलै तो नारद सारदा, झुलै व्यास फनींद। बेलि संत कबीर की बेलि उपदेश प्रधान काव्यरुप है। इसके अंतर्गत सांसारिक मोह ममता में फँसे जीव को उपदेश दिया गया है। "कबीर बीजक' में दो रचनाएँ बेलि नाम से जानी जाती है। इसकी पंक्ति के अंत में "हो रमैया राम' टेक को बार- बार दुहराया गया है। कबीर साहब की एक बेलि :- हंसा सरवर सरीर में, हो रमैया राम। जगत चोर घर मूसे, हो रमैया राम। जो जागल सो भागल हो, रमैया राम। सावेत गेल बिगोय, हो रमैया राम। कहरा कहरा काव्यरुप में क्षणिक संसार के मोह को त्याग का राम का भजन करने पर बल दिया जाता है। इसके अंतर्गत यह बताया जाता है कि राम के अतिरिक्त अन्य देवी- देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है। यह कबीर की रचनाओं का जन- प्रचलित रुप है :- रामनाम को संबहु बीरा, दूरि नाहिं दूरि आसा हो। और देवका पूजहु बौरे, ई सम झूठी आसा हो। उपर उ कहा भौ बौरे, भीटर अजदूँ कारो हो। तनके बिरघ कहा भौ वौरे, मनुपा अजहूँ बारो हो। बिरहुली बिरहुली का अर्थ सर्पिणी है। यह शब्द बिरहुला से बना है, जिसका अर्थ सपं होता है। यह शब्द लोक में सपं के विष को दूर करने वाले गायन के लिए प्रयुक्त होता था। यह गरुड़ मंत्र का प्राकृत नाम है। गाँव में इस प्रकार के गीतों को विरहुली कहा जाता है। कबीर साहब की बिरहुली में विषहर और विरहुली दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। मनरुपी सपं के डस लेने पर कबीर ने बिरहुली कहा :- आदि अंत नहिं होत बिरहुली। नहिं जरि पलौ पेड़ बिरहुली। निसु बासर नहिं होत बिरहुली। पावन पानि नहिं भूल बिरहुली। ब्रह्मादिक सनकादि बिरहुली। कथिगेल जोग आपार बिरहुली। बिषहा मंत्र ने मानै बिरहुली। गरुड़ बोले आपार बिरहुली। उलटवाँसी बंधी बधाई विशिष्ट अभिव्यंजना शैली के रुप में, उलटवाँसी भी एक काव्यरुप है। इसमें आटयात्मिक बातों का लोक विपरीत ढ़ंग से वर्णन किया जाता है। इसमें वक्तव्य विषय की प्रस्तुत करने का एक विशष ढ़ंग होता है :- तन खोजै तब पावै रे। उलटी चाल चले गे प्राणी, सो सरजै घर आवेरो धर्म विरोध संबंधी उलटवाँसिया: अम्बर बरसै धरती भीजे, यहु जानैं सब कोई। धरती बरसे अम्बर भीजे, बूझे बिरला कोई। मैं सामने पीव गोहनि आई। पंच जना मिलिमंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई। सामान्यरुप में कबीर साहब ने जन- प्रचलित काव्यरुप को अपनाया है। जन- प्रचलित होने के कारण ही सिंहों, माथों, संतों और भक्तों के द्वारा इनको ग्रहण किया गया। विचारों और भखों के साथ ही, काव्यरुपों के क्षेत्र में भी कबीर साहब को आदर्श गुरु तथा मार्गदर्शक माना गया है। परवर्ती संतों तथा भक्तों ने उनके विचारों और भावों के साथ- साथ काव्यरुपों को भी अपनाया। कबीर साहब ने इन काव्यरुपों को अपना करके महान और अमर बना दिया। कबीर के काव्य में दाम्पत्य एवं वात्सल्य के द्योतक प्रतीक पाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में सांकेतिक, प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक, रुपात्मक प्रतीक तथा प्रतीकात्मक उलटवाँसियों के सुंदर उदाहरण पाए जाते हैं।
________________________________________ कबीर का काल संक्राति का काल था। तत्कालीन राजनीतिक वातावरण पूर्ण रुप से विषाक्त हो चुका था। इस समय की राजनीतिक व्यवस्था को बहुत अंश तक मुल्ला और पुजारी प्रेरित करते थे। हिंदू- मुसलमानों के भीतर भी निरंतर ईर्ष्या और द्वेष का बोलबाला था। तत्कालीन समृद्ध धर्मों बौद्ध, जैन, शैव एवं वैष्णवों के अंदर विभिन्न प्रकार की शाखाएँ निकल रही थी। सभी धर्मों के ठेकेदार आपस में लड़ने एवं झगड़ने में व्यस्त थे। लोदी वंश का सर्वाधिक यशस्वी सुल्तान, सिकंदर शाह सन् १४८९ ई. में गद्दी पर बैठा। सिकंदर को घरेलू परिस्थिति एवं कट्टर मुसलमानों का कड़ा विरोध सहना पड़ा। दुहरे विरोध के कारण वह अत्यंत असहिष्णु हो उठा था। सिकंदर शाह के तत्कालीन समाज में आंतरिक संघर्षों एवं विविध धार्मिक मतभेदों के कारण, भारतीय संस्कृति की केंद्रीय दृष्टि समाप्तप्राय हो गयी थी। इसी जनशोषित समाज में लौह पुरुष महात्मा कबीर का जन्म हुआ। शक्तिशाली लोगों ने ऐसे- ऐसे कानून बना लिए थे, जो कानून से बड़ा था और इसके द्वारा वह लोगों का शोषण किया करते थे। धर्म की आड़ में ये शोषक वर्ग अपनी चालाकी को देवी विधान से जोड़ देता था। तत्कालीन शासन- तंत्र और धर्म- तंत्र को देखते हुए, महात्मा कबीर ने जो कहा, इससे उसकी बगावत झलकती है-- दर की बात कहो दरवेसा बादशाह है कौन भेसा कहाँ कूच कर हि मुकाया, मैं तोहि पूछा मुसलमाना लाल जर्द का ताना- बाना कौन सुरत का करहु सलामा। नियमानुसार शासनतंत्र के कुछ वैधानिक नियम होते हैं, जिनके तहत सरकारी कार्यों को संपादित किया जाता है, लेकिन कबीर के काल में ऐसा कोई नियम नहीं था, इसी लिए वे कहते हैं ""बादशाह तुम्हारा वेश क्या है ? और तुम्हारा मूल्य क्या है ? तुम्हारी गति कहाँ है ? किस सूरत को तुम सलाम करते हो ? इस प्रकार राजनीतिक अराजकता तथा घोर अन्याय देखकर उनका हृदय वेदना से द्रवित हो उठता है। धार्मिक कट्टरता के अंतर्गत मनमाने रुप से शासन तंत्र चल रहा था, जिसमें साधारण जनता का शोषण बुरी तरह हो रहा था। कबीर के लिए यह स्थिति असहनीय हो रही थी। काजी काज करहु तुम कैसा, घर- घर जब हकरा बहु बैठा। बकरी मुरगी किंह फरमाया, किसके कहे तुम छुरी चलाया। कबीर पूछते हैं ""काजी तुम्हारा क्या नाम है ? तुम घर पर जबह करते हो ? किसके हुक्म से तुम छुरी चलाते हो ? दर्द न जानहु, पीर कहावहु, पोथा पढ़ी- पढ़ी जग भरमाबहु काजी तुम पीर कहलाती हो, लेकिन दुसरों का दर्द नहीं समझते हो। गलत बातें पढ़- पढ़ कर और सुनाकर तुम समाज के लोगों को भ्रम में डालते हो। उपयुर्क्त बातों से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन समाज में धर्म की आड़ में सब तरह के अन्याय और अनुचित कार्य हो रहे थे। निरीह जनता के पास इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की शक्ति नहीं थी। कबीर इस चालाक लोक वेद समर्पित देवी विधान के खिलाफ आवाज उठायी। दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया, मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय। दिन में रोजा का व्रत रखते हो और रात में गाय की हत्या करते हो ? एक ओर खून जैसा पाप और दूसरी ओर इश बंदगी। इससे भगवान कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार एक गरीब कामगार कबीर ने शोषक वर्ग के शिक्षितों साधन संपन्नों के खिलाफ एक जंग को बिगुल बजाया। इक दिन ऐसा होइगा, सब लोग परै बिछोई। राजा रानी छत्रपति, सावधान किन होई।। कबीर के कथनानुसार परिवर्तन सृष्टि का नियम है। राजा हमेशा बदलता रहता है। एक की तूती हमेशा नहीं बोलती है। मरण को स्वीकार करना ही पड़ता है, अतः राजभोग प्राप्त करके गर्व नहीं करना चाहिए, अत्याचार नहीं करना चाहिए। यह बात सर्वमान्य है कि एक दिन सब राज- पाठ छोड़कर यहाँ से प्रस्थान करना ही होगा। आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढि चले, एक बघें जंजीर।। कबीर साहब मृत्यु के सम्मुख राजा, रंक और फकीर में कुछ भेदभाव नहीं मानते हैं। उनके अनुसार सभी को एक दिन मरना होगा। कहा हमार गढि दृढ़ बांधों, निसिवासर हहियो होशियार ये कलि गुरु बड़े परपंची, डोरि ठगोरी सब जगमार। कबीर चाहते थे कि सभी व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार अपनी आँखों से करे। धर्म के नाम पर मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई खोदने वालों से कबीर साहब को सख्त नफरत होती थी। उन्होंने ऐसे तत्वों को बड़ी निर्भयता से अस्वीकार कर दिया था। ऐसा लोग न देखा भाई, भुला फिरै लिए गुफलाई। महादेव को पंथ चलावै ऐसे बड़ै महंत कहावै। हाट बजाए लावे तारी, कच्चे सिद्ध न माया प्यारी। महात्मा कबीर हैरान होकर लोगों से कहा करते थे, भाई यह कैसा योग है। महादेव के नाम परपंथ चलाया जाता है। लोग बड़े- बड़े महंत बनते हैं। हाटे बजारे समाधि लगाते हैं और मौका मिलते ही लोगों को लूटने का प्रयास करते हैं। ऐसे पाखंडी लोगों का वे पर्दाफाश करते हैं। भये निखत लोभ मन ढाना, सोना पहिरि लजावे बाना। चोरा- चोरी कींह बटोरा, गाँव पाय जस चलै चकोरा। लोगों को गलत बातें ठीक लगती थी और अच्छी बातें विष। सत्य की आवाज उठाने का साहस किसी के पास न रह गया था। नीम कीट जस नीम प्यारा विष को अमृत कहत गवारा। वे कहते हैं, सत्य से बढकर कोई दूसरा तप नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। जिनका हृदय शुद्ध है, वहाँ ईश का निवास है। सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप, ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप। राजाओं की गलत और दोषपूर्ण नीति के कारण देश जर्जर हो गया और प्रजा असह्य कष्ट उठाने को बेबश थी। राज नेता धर्म की आड़ में अत्याचार करते थे। कबीर की दृष्टि में तत्कालीन शासक यमराज से कम नहीं थे। राजा देश बड़ौ परपंची, रैयत रहत उजारी, इतते उत, उतते इत रहु, यम की सौढ़ सवारी, घर के खसम बधिक वे राजा, परजा क्या छोंकौ, विचारा। कबीर के समय में ही शासको की नादानी के चलते, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद और पुनः दौलताबाद से दिल्ली बदलने के कारण अपार धन और जन को हानि हुई थी तथा प्रजा तबाह हो गई थी। महात्मा कबीर साहब ने इस जर्जर स्थिति एवं विषम परिस्थिति से जनता को उबारने के लिए एक प्रकार जेहाद छेड़ दिया था। एक क्रांतिकारी नेता के रुप में कबीर समाज के स्तर पर अपनी आवाज को बुलंद करने लगे। काजी, मुल्लाओं एवं पुजारियों के साथ- साथ शासकों को धिक्कारते और अपना विरोध प्रकट किया, जिसके फलस्वरुप कबीर को राजद्रोह करने का आरोप लगाकर तरह- तरह से प्रताड़ित किया गया। ""एकै जनी जन संसार'' कहकर कबीर ने मानव मात्र में एकता का संचार किया तथा एक ऐसी समझदारी पैदा करने की चेष्टा की, कि लोग अपने उत्स को पहचान कर वैमन्षय की पीड़ा से मुक्ति पा सकें और मनुष्य को मनुष्य के रुप में प्रेम कर सकें। आधुनिक राजनीतिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि आग कबीर साहब होते, तो उनको निर्भीक रुप से राजनैतिक दलों एवं व्यक्तियों से तगड़ा विरोध रहता, क्योंकि आग की परिस्थिति अपेक्षाकृत अधिक नाजुक है। आज कबीर साहब तो नहीं है, मगर उनका साहित्य अवश्य है, आज की राजनैतिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार लाने के लिए कबीर साहित्य से बढ़कर और कोई दूसरा साधन नहीं है। कबीर साहित्य का आधार नीति और सत्य है और इसी आधार पर निर्मित राजसत्ता से राष्ट्र की प्रगति और जनता की खुशहाली संभव है। उनका साहित्य सांप्रदायिक सहिष्णुता के भाव से इतना परिपूर्ण है कि वह हमारे लिए आज भी पथ प्रदर्शन का आकाश दीप बना हुआ है। आज कबीर साहित्य को जन- जन तक प्रसार एवं प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि सभी लोग इसको जान सकें और स्वयं को शोषण से मुक्ति एवं समाज में सहिष्णुता बना सकें।
कबीर साहब का आविर्भाव जिस समय हुआ, उस समय तक सारे देश में मुसलमान फैल हो चुके थे। ये सभी मुसलमान हिंदूओं के साथ बसने के लिए बेवश थे। ऐसे नाजुक समय में जरुरत इस बात की थी कि कोई इन्हें संघर्ष का रास्ता छोड़कर मेल- मिलाप के लिए तत्पर बनाना, दोनों की कतियाँ निष्पक्ष होकर बताना और दोनों की जुझारु कट्टरता को दूर करना। उस समय की इस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति कबीर साहब ने की और दूरवर्ती जातियों को मजहबों और साधना पद्धतियों को मिलाने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने ऐसी साधना प्रचलित किए, जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों के सह- अस्तित्व की संभावना थी, जिसमें ऊँच- नीच, जाति- पाति, स्री- पुरुष के अनुचित भेदभाव के लिए कोई अवसर नहीं था। इस साधना पद्धति में सभी बराबर थे।
संत कबीर स्वयं ऐसे परिवार में जन्में थे, जो तत्कालीन समाज व्यवस्था में अस्पृश्य था। उन्होंने स्वयं वर्ण- व्यवस्था की कटुताओं को झेला था। कबीर साहब मध्यकाल में ब्राह्मण- व्यवस्था के विरुद्ध इस विद्रोह के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। आपने सर्वप्रथम भक्ति परंपराओं का प्रचार किया, जोकि ब्राह्मण- व्यवस्था के विरुद्ध थी। आपने जिस तरह ब्राह्मण- व्यवस्था के गढ में काशी में रहकर, इस व्यवस्था पर प्रहार करते रहे, यह अति सराहनीय माना जाता है। यहाँ के ब्राह्मणों ने तपस्थली को ब्राह्मण और क्षत्रियों तक ही सीमित कर दिया था। कबीर साहब ने इसके खिलाफ नया मूल्य स्थापित किया। उन्होंने वहाँ, "हरिजन सई न जाति' भक्त से समान कोई दूसरी जाति नहीं है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि जो भक्त है, वह यदि अस्पृश्य है, तब भी ब्राह्मणों से श्रेष्ठ है। उन्होंने इस प्रकार भक्ति के हथियार से वर्णाश्रम अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर प्रहार किया। वह नया मूल्य स्थापित करते हुए कहते हैं :- ""जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।'' तत्कालीन समाज व्यवस्था में जो व्यक्ति स्वयं नहीं पाता था, उसे अंग्रेज विचारक कीलिन विल्सन ने ""आउट साइडर'' कहा था। भक्ति काल का प्रत्येक कवि ""आउट साइंडर'' कहलाया, क्योंकि ये कवि रुढियों अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं एवं परंपराओं को छोड़कर चलना चाहते थे। कबीर साहब मध्य काल के ऐसे पहले कवि थे, जिन्हें ""आउट साइडर'' कहा गया। कबीर लोक, वेद, शास्र तथा मंत्र को छोड़कर चलना चाहते थे। कबीर साहब को संग्राम का योद्धा कहा जाए, तो अच्छा होगा। कबीर का मानना था कि अगर भगवान को वर्ण- विचार कहना होता, तो वह जन्म से ही तीन विभाजक खींच देते। उत्पत्ति की दृष्टि से समस्त जीव समान है। ""जौ पै करता बरण बिचारै। तौं जनमत तीनि डांडी किन सारे।। उत्पत्ति ब्यंद कहाँ थै आया, जोति धरि अरु लगी माया। नहिं कोइ उँचा नहिं कोइ नीचे, जाका लंड तांही का सींचा।। जो तू वामन वमनीं जाया, तो आने बाट हवे काहे न आया। जो तू तुरक तुरकनीं जाया तो भीतरि खतना क्यूनें करवाया।। पंडित को वह वटूक्ति सुनाते हुए कहते हैं, जैसे गदहा चंदन का भार वहन करता है, पर उसकी सुगंधि से अभिमूढ नहीं होता। उसी तरह पंडित भी वेद पुराण पढ़कर राम नाम के वास्तविक तत्व नहीं पाता। पांडे कौन कुमति तोहि लगि, तू राम न जपहि आभागा। वेद पुराण पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।। राम नाम तत समझत नाहीं, अति अरे मुखि धारा। वेद पढता का यह फल पाडै राबधटि देखौ रामा।। कबीर के अनुसार ब्राह्मण को तत्वानुभव नहीं होने के कारण उसकी बात कोई नहीं मानता है। पंडित संति कहि रहे, कहा न मानै कोई। ओ अशाध एका कहै, भारी अचिरज होई।। कबीर साहब ब्राह्मण को जाति- पाति बाँटने का जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण का ज्ञान बासी है और उसका व्यक्तित्व पाखंडपूर्ण है :- लिखा लिखी की है नहीं , देखा देखी बात। दुल्हा- दुल्हिन मिल गए, फीको पड़ी बारात। तत्कालीन ब्राह्मण समाज के लोला ज्ञान पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं :- चार यूं वेद पढ़ाई करि, हरि सूंन लाया हेत। बाँलि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढै खेत।। कबीर के अनुसार मनुष्य जन्म से समान है, लेकिन समाज ने उसे रुढियों में जकड़ लिया है तथा भाँति- भाँति की क्यारियाँ गढ़ ली गई है। इस प्रकार एक क्यारी का बिखरा, दूसरी क्यारी में नहीं जा सकता है, इस प्रकार कवि जातिवाद और छुआ- छूत सबको पाखंड मानते हैं और कहते हैं :- पाड़ोसी सू रुसणां, तिल- तिल सुख की होणि। पंडित भए सरखगी, पाँणी पीवें छाँणि।। पंडित सरावगी हो गए हैं और पानी को छान कर पीने लगे हैं, अर्थात वे ढ़ोंग करते हैं और दूसरे के धर्म की अनावश्यक नुक्ता- चीनी और छान- बीन करते रहते हैं। आपके अनुसार पंडित का गोरख धंधा बटमारी और डकैती है। पंडित ने इस संसार को पाषाण- मूर्तियों से भर दिया है और इसी के आधार पर पैसा कमाता है। काजल केरि कोठरी, मसिके कर्म कपाट। पाहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट।। कबीर साहब जात- पात की तुलना में कर्म को श्रेष्ट मानते हैं :- ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जेकरणी उँच न होई सोवन कलस सुरै भरया, साधू निंधा सोई।। अपनी पूरी जिंदगी में कबीर ने सामाजिक कुरीतियों के झाड़- झंखाड़ को साफ करने और उच्चतर मानव का पथ प्रशस्त करने का प्रयास किया। कबीर साहब का भक्ति में अत्याधिक विश्वास था। भक्ति से युक्त व्यक्ति न तो ब्राह्मण होता है और न चंडाल, बल्कि वह सिर्फ भक्त होता है। कबीर साहब ने समाज के आपसी मतभेद को मिटाकर इस प्रकार का संदेश दिया है, जैसे हल्दी पीली होती है और चुना श्वेत, पर दोनों मिलकर अपना रंग मिलाकर लाल रंग की होली में परिणत हो जाते हैं :- कबीर हरदी पीयरी, चुना उजल भाय। राम सनेही यूँ मिले, दन्यूं बस गमाय।। कबीर की उपर्युक्त रमैनी के अनुसार, राम के भक्त विभिन्न जातियों का परित्याग का एकाकार हो जाते हैं और वे अपने विभिन्न सांप्रदायिक भाव ईश्वर प्रेम की लालिमा में समाहित कर देते हैं। इस प्रकार कावा और काशी या राम और रहीम का भेद मिट जाता है, सब एक ही हो जाते हैं :- कावा फिर काशी भया, राम भया रहीम। मोठ चून मैदा भया, बैठो कबीरा जीम।। इस प्रकार कबीर साहब भक्ति के द्वारा सामाजिक पाथेवय को मिटाते हैं और मन के विधान का अतिक्रमण करने का उपदेश देते हैं।
मध्यकालीन कवियों ने प्रेम को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना था। समाज में व्याप्त क्यारियों को ध्वस्त करने के लिए इन कवियों ने प्रेम की शरण ली थी। कबीर साहब ने इस समस्त काल में प्रेम को प्रतिष्ठा प्रदान किया एवं शास्र- ज्ञान को तिरस्कार किया। मासि कागद छूओं नहिं, कलम गहयों नहिं हाथ। कबीर साहब पहले भारतीय व हिंदी कवि हैं, जो प्रेम की महिमा का बखान इस प्रकार करते हैं :- पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। कबीर के अनुसार ब्राह्मण और चंडाल की मंद- बुद्धि रखने वाला व्यक्ति परमात्मा की अनुभूति नहीं कर सकता है, जो व्यक्ति इंसान से प्रेम नहीं कर सकता, वह भगवान से प्रेम करने का सामर्थ्य नहीं हो सकता। जो व्यक्ति मनुष्य और मनुष्य में भेद करता है, वह मानव की महिमा को तिरस्कार करता है। वे कहते हैं मानव की महिमा अहम् बढ़ाने में नहीं है, वरन् विनीत बनने में है :- प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय। कबीर साहब ने प्रेम की जो परंपरा चलाई, वह बाद के सभी भारतीय कहीं- न- कहीं प्रभावित करता रहा है। इसी पथ पर चलकर रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान व्यक्तित्व के मालिक हुए। कबीर भक्ति की साधना कबीर के विचार से यह जीवन, संसार तथा उसके संपूर्ण सुख क्षणिक है। इनके पीछे भागना व्यर्थ में समय को गुजारना है। कबीर के अनुसार यह संसार दुखों का मूल है। सुख का वास्तविक मूल केवल आनंदस्वरुप राम है। इसकी कृपा के बिना, जन्म- मरण तथा तज्जन्य सांसारिक दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। यही कारण है कि कबीर साहब राम की भक्ति पर अत्यधिक बल देते हैं और कहते हैं कि सब कुछ त्याग का राम का भजन करना चाहिए। सरबु तिआगि भजु केवल राम कबीर कहते हैं कि राम या परमात्मा की भक्ति से ही माया का प्रभाव नष्ट हो सकता है तथा बिना हरि की भक्ति के कभी दुखों से मुक्ति नहीं हो सकती है। बिनु हरि भगति न मुक्ति हाइ, इउ कहि रमें कबीर परंतु कबीर की दृष्टि से भक्ति पूर्णतः निष्काम होनी चाहिए, वे हरि से धन, संतान कोई अन्य सांसारिक सुख माँगने के विरुद्ध हैं, वे तो भक्ति के द्वारा स्वर्ग भी नहीं माँगना चाहते हैं। कबीर के राम से मुराद राजा दशरथ के पुत्र राजा राम नहीं हैं, बल्कि घट- घट में निवास करने वाले निगुर्ण, निरंजन, निराकार, सत्यस्वरुप एवं आनंदस्वरुप राम हैं। उन्हें परमात्मा, हरि, गोविंद, मुरारी, अल्लाह, खुदा किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उन्हें ढ़ुढ़ने के लिए वन में भटकने की आवश्यकता नहीं है, भक्ति और युक्ति से उनका हृदय में साक्षात्कार किया जा सकता है। कबीर के मतानुसार आनंदस्वरुप राम और मनुष्य का आत्मा कोई दो भिन्न तत्व नहीं हैं :- जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी। फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी। कबीर कहते हैं :- साधक अपना अहंभाव खोकर सागर में बूँद की तरह परमात्मा से मिल सकता है :- हंरत हंरत हे सखी, गया कबीर हिराई। बूँद समानी समद में, सोकत हरि जाइ।। कबीर के अनुसार मनुष्य को स्वयं यह विचार करना चाहिए कि दुख का वास्तविक कारण क्या है? सुख का मूल क्या है और उसको पाने का उपाय क्या है ? ज्ञानदाता गुरु को कबीरदास अत्यंत पूज्य मानते हैं, वो तो गुरु और गोविंद में कोई अंतर नहीं मानते हैं :- गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार। आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।। कबीर की भक्ति साधना में वेद शास्र के ज्ञान यज्ञ, तीर्थ, व्रत, मूर्ति पूजा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।
धर्मदास और गोपाल ये दोनों कबीर के शिष्य,जो धर्मदास जाति के बनियाँ थे। यह काशी में कबीर से मिलने से पहले कट्टर मूर्तिपूजक थे। जब यह कबीर के पास आ गए, तो कबीर ने इनको मूर्तिपूजन से मना कर दिया, फिर कुछ समय पश्चात दोनों की भेंट वृंदावन में हुई। धर्मदास यहाँ कबीर को न पहचान सके, वह बोले तुम ठीक काशी में मिलने वाले साधु की तरह हो। यहाँ भी कबीर साहब चौकन्ने थे। इन्होंने धर्मदास के हाथ में पड़ी मूर्ति को लेकर जमुना में डाल दिया। धर्मदास अपने साथ सदा एक पत्थर की मूर्ति रखते थे। कुछ दिनों के पश्चात् कबीर साहब स्वयं धर्मदास के घर बांदोगढ़ गए, वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर को पूजते हो, जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं। उनके दिल में कबीर साहब की यह बात ऐसी बैठी कि वह उनके शिष्य हो गए। कबीर की मृत्यु के पश्चात धर्मदास ने छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की एक अलग शाखा चलाई और सूरत गोपाल काशी वाली शाखा के उत्तराधिकारी बनाए गए। कबीर पंथ स्वामी रामानंद जी के बारह शिष्य हुए :- अनंतानंद, कबीरदास, सुखानंद, सुरसरा, पद्मावती, नरहरि, पीपा, भवानंद, रैदास, धनासेन, योगानंद और गालवानंद। इन संतों ने अपने गुरु रामानंद स्वामी जी के विचार का प्रचार केंद्र भी बनाया। आज भी इन संतों द्वारा स्थापित केंद्र समाज के कल्याण एवं समाज सुधार, जैसे कामों में लगे हुए हैं। कबीर पंथ की बारह प्रमुख शाखाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके संस्थापक नारायणदास, श्रुतिगोपाल साहब, साहब दास, कमाली, भगवान दास, जागोदास, जगजीवन दास, गरीब दास, तत्वाजीवा आदि शिष्य हैं। मूलगादी शाखा कबीर पंथ सर्वप्रथम शुरुआत कबीर साहब के प्रखर और दार्शनिक शिष्य श्रुतिगोपाल साहब ने उनकी जन्मभूमि वाराणसी में मूलगादी नाम से की। इसके प्रधान भी श्रुतिगोपाल ही बनाए गए। उन्होंने अपनी प्रखर मेघा के प्रभाव से दार्शनिक पक्ष अपना कर, कबीर साहब की शिक्षा को देश के प्रत्येक लोगों में पहुँचाया। कालांतर में मूलगादी की अनेक शाखाएँ उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में स्थापित कर, कबीर साहब के वचनों को तत्परता के साथ जन साधारण तक पहुँचाया।
कबीर ने अपने जीवन के निजी अनुभवों से जो कुछ सीखा था, उसके आलोक में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांप्रदायिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था को देखकर हतप्रभ थे। वे इन स्थितियों में अमूल परिवर्तन लाना चाहते थे, लेकिन उनकी बातों को सुनने और मानने को कोई उत्सुक नहीं था। उनको सारा संसार बौराया हुआ लग रहा था। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्याना। वे फरमाते हैं कि साधू जाति से नहीं, ज्ञान से पुज्यनीय बनता है। कबीर बराबर प्रयत्नशील रहे कि दुखी, असहाय और पीड़ित जनता के बीच सुख- शांति का प्रसार हो एवं उनका जीवन सुरक्षित और आनंदमय हो। तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर उन्होंने अनुभव किया कि भक्ति के मार्ग पर मोड़कर ही जनता को खुशी प्रदान की जा सकती है। उन्होंने इस अस्र का ही सहारा लिया :- कहे कबीर सुनो हो साधो, अमृत वचन हमार, जो भल चाहो आपनी, परखो करो विचार, आप अपन पो चीन्हहू, नख सिखा सहित कबीर, आनंद मंगल गाव हु, होहिं अपनपो थीर। कबीर संतप्त जनजीवन के बीच शांत बना देते थे। वे सुखी जीवन की कला भक्ति को बताते थे। कबीर के पास यही ज्ञान था, इसी ज्ञान के सहारे वे जनजीवन में हरियाली लाने का प्रयास करते रहे। वे कहते हैं कि अगर तुम अपनी भलाई चाहते हो, तो मेरी बातों को ध्यान से सुनो और उन पर अमल भी करो। वे हम मानव को सर्वप्रथम स्वयं को स्थिर करने, शांत होने, अपने को पहचानने एवं आनंद में रहने को कहते हैं। उनके अनुसार जब मानव मन के सारे विकारों को दूर करके शांत स्थिर चित्त से बैठेगा, तो वह हर प्रकार की विषम परिस्थिति से बचा रहेगा। इस प्रकार कबीर मानवतावादी है। मानव के सच्चे शुभचिंतक हैं :- ओ मन धीरज काहे न धरै, पशु- पक्षी जीव कीट पतंगा, सबकी सुध करे, गर्भवास में खबर सेतु है, बाहा ओं विसरै। रे मन, धैर्य रखो। भगवान सब जीव की सुध लेते हैं, तुम्हारी भी लेंगे। जब तुम नौ मास गर्भ में थे, तब भगवान ही रक्षा कर रहे थे। फिर अब वह तुम्हें कैसे भूल सकते हैं ? कबीर इस बात को महसूस का चुके थे कि जनता को सद्भावना, सहानुभूति और प्यार की जरुरत है। किसी भी मूल्य पर वह गरीब जनता के जीवन से रस घोलना चाहते हैं। पानी बिच मीन प्यासी, मोहि सुन- सुन आवें हांसी। घर में वस्तु न नहीं आवत, वन- वन फिरत उदसी। कबीर साहब कहते हैं, भला जल में मछली रहकर प्यासी रह सकती है ? प्रत्येक मानव के भीतर ईश का वास है, जहाँ निरंतर आनंद- ही- आनंद है। इसी की खोज करना चाहिए। अन्यंत्र बारह घूमने या परेशान होने की कतई जरुरत नहीं है। कस्तुरी कुंडल वसै, मृग ढ़ूढे वन माहिं, ऐसे घर- घर राम हैं, दुनियां देखे नाहिं। कस्तूरी मृग की नाभि में रहता है, लेकिन मृग अज्ञान- वश इसे जंगल में खोजता- फिरता है। इसी तरह सर्वशक्तिमान भगवान और आनंद मनुष्य के अपने अंतर हृदय में ही अवस्थित है, लेकिन अज्ञानी मानव सुख शांति की तलाश में बाहर अंदर घूमता रहता है, जो कि व्यर्थ है। कबीर भक्ति को आकर्षण दिखाकर लोगों के हृदय में शांति का संचार करना चाहते हैं। दुरलभ दरसन दूर है, नियरे सदा सुख वास, कहे कबीर मोहि समापिया, मत दुख पावै दास। कबीर साहब व्यावहारिकता पर बल देते हैं। उनका सब सुझाव सीधा और अनुकरणीय है। वे मानव को सांसारिक प्रपंच से हटाकर अंतर्मुखी होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि दूर का सोचना व्यर्थ है। समीपता में ही सुख का वास है। परमातम गुरु निकट विराजै, जाग- जाग मन मेरे, धाय के पीतम चरनन् लागे, साई खड़ा सिर तेरे। उनकी उक्तिनुसार परमात्मा का वास अपने निकट ही है, अतः घबराने की कोई जरुरत नहीं है। आवश्यकता सिर्फ मन को जगाकर परमात्मा में लगाने की है। मानव को दौड़कर भगवान का चरण पकड़ लेना चाहिए, क्योंकि वे सिर के पास ही खड़े हैं। कबीर कहते हैं, आस्था और विश्वास में बहुत बल है। निर्बल जनता के बीच इसी भक्ति का बीजारोपण करने का प्रयास महात्मा कबीर ने किया है। देह धरे का दण्ड है, सब काहु को होय, ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मुरख भुगते रोय। सब काहू को होय। महात्मा कबीर साहब कहते हैं कि सभी शरीर धारियों को इस संसार में अपने कर्मानुसार दुख उठाना ही पड़ता है। दुख की इस घड़ी में कतई घबड़ाना नहीं चाहिए, बल्कि शांतिपूर्वक दुख का सहन करना चाहिए। ज्ञानी जन अपने ज्ञान के बल पर इस दुख की मार को स्थिर चित्त से शांति पूर्वक भोग लेते हैं, लेकिन अज्ञानीजन दुख की मार से तिलमिला जाते हैं और रुदन करने लगते हैं। तत्कालीन परिस्थितियों के परिवेश में जनता को वे समझाते हैं कि तुम जिस भी स्थिति में हो, उसी में रहकर शांतिपूर्वक भगवान का ध्यान लगाओ। तुम्हारा दुख- दर्द सब दूर हो जाएगा। अपने मन को शुद्ध करने की आवश्यकता पर बल दो। जब लग मनहि विकारा, तब लागि नहीं छूटे संसारा, जब मन निर्मल भरि जाना, तब निर्मल माहि समाना। जब तक मन में विकार है, तब तक सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। शुद्धि के पश्चात ही भक्ति रस में मन रमता है और सांसारिक प्रपंच से मन शनै: शनै: हटने लगता है। वे कहते हैं, मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। सबसे हिलिया, सबसे मिलिया, सबसे लिजिए नोहा जी सबसे कहिऐ, वसिये अपने भावा जी। वे कहते हैं सबसे मिलो जुलो, वर्तालाप करो, सबसे प्रेम करो, लेकिन अपना वास स्थान प्रभु में रखो। कर से कर्म करो विधि नाना, मकन राखो जहाँ कृपा निधाना। संत तुलसी दास भी कहते हैं, ""हाथ से कर्तव्य करो, अपना कर्तव्य पूरा करो, लेकिन मन सर्वदा भगवान में लगाए रखो। आदर्श जीवन जीने की यहीं कला है, जिसकी ओर प्रायः सभी संतों ने आगाह किया है। सुख सागर में आये के , मत जा रे प्यारा, अजहुं समझ नर बावरे, जम करत निरासा। महात्मा कबीर चेतावनी देते हैं कि इस संसार में आकर अपना जीवन व्यर्थ मत करो, रामरस पीकर अपने को तृप्त कर लो। कबीर साहब थोड़ा आक्रोश में आकर कहते हैं, अब भी संभल जाओ, होश में आओ और भक्ति में लग जाओ। भक्ति ही कल्याण का मार्ग मात्र है। दास कबीर यो कहै, जग नाहि न रहना, संगति हमरे चले गये, हमहूँ को चलाना। महात्मा कबीर अपनापन के साथ हमें बतलाते हैं :- यह संसार हम सबों के लिए चिरस्थायी निवास स्थान नहीं है। यहाँ से प्रत्येक मानव को एक न एक दिन जाना ही पड़ता है। हमारे बहुत संगी चले गए। कबीर के अनुसार मनुष्य कितना भी यशस्वी हो, कितना ही विद्वान हो, कितना ही व्यक्तित्व मुक्त हो, कितना ही समुद्धशाली हो, कितना ही विद्वान हो, मगर जब तक वह अपने अंदर छिपे हुए उस सुक्ष्मातिसुक्ष्म तत्व का अन्वेषण नहीं करता, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता, जब तक उसका जीवन व्यर्थ है :- हरि बिन झूठे सब त्योहार, केते कोई करी गंगवार। झूठा जप- तप झूठा गमान, राम नाम बिन झूठा ध्यान। वे फरमाने हैं कि विवेक के निर्देशों का पालन करने वाले जीवन में असीम आनंद का प्रवाह होता है। विवेकी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता, क्योंकि उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की समस्त स्थितियाँ नश्वर एवं क्षणिक हैं। विवेक के संबंध में कबीर को स्पष्ट निर्देश है :- मन सागर मनसा लहरि बूड़े बहे अनेक, कह ""कबीर'' तो बाचहि, जिनके हृदय विवेक। वे कहते हैं कि आनंद दूसरों को दुख देकर नहीं, बल्कि इच्छापूर्वक स्वंय दुख झेलने से ही प्राप्त होता है :- आप ठग्या सुख उपजै, और ठगया दुख होय। उनके अनुसार ""धर्म में अभी भी इतनी क्षमता है कि मानव जाति को ऐसी बहुमुखी संपूर्णता की ओर ले जा सकते हैं, जिसमें हिंदू धर्म की आध्यात्मिक ज्योति, यहुदी धर्म की आस्था और आज्ञाकारिता, युनानी देवार्चन की सुंदरता, बौद्ध धर्म की काव्य करुणा, इसाई धर्म की दिव्य प्रीति और इस्लाम धर्म की त्याग भावना सम्मिलित हो।'' आज हमारा देश जिस संकट में घिरा है, उसका मूल कारण धर्म से विमुखता हो, जिसकी वजह से लोगों का सदाचार भी समाप्त हो गया है।
संत कबीर के आविभाव के साथ ही संतकाल का सुत्रपात हो गया था। कबीर दास के शिष्य चरण दास, गरीब दास, मलूक दास आदि कवियों ने अध्यात्म की धारा बहाकर हिंदू- मस्लिम संबंधी विविध प्रसंग लेकर संपूर्ण देश में अराजकता के युग के स्वर्ण युग की संज्ञा दिलाई। इन सभी संतों के काव्य का मूल स्वर अध्यात्म है। सभी संतों ने एक स्वर में घोषणा की कि देश में व्याप्त संकट अराजकता और अन्याय से मुक्ति दिलाने में अध्यात्म ही मदद कर सकता है। इसी के बल पर चलकर देश की प्रगति में सहायक बना जा सकता है। जिनके सदा अहार अंतर में, केवल संत विचारा। कहे कबीर सुनो हो गोरख, तारो सहित परिवारा।। कबीर के अनुसार सत्य विचार ही मूल चीज है , जिसने इस तत्व को स्वीकार किया और उस पर अमल किया, निश्चय ही वह परिवार सहित कल्याण का भागी होगा। क्या गायें क्या लिखि बतलाये, क्या भ्रमे संसार। क्या संध्या तपंन के कीन्हें जो नहि तत्व विचारा।। झूठ बनाने और अनर्थ गर्व करने से कुछ नहीं होने वाला है। इससे सिर्फ भ्रम पैदा होता है। संध्या तपंन से भी कोई लाभ नहीं होता, अगर मन में सत्य विचार नहीं । संत मलूक दास ने भी इसी आशय के भाव व्यक्त किये :- दीन बंधु दीनानाथ, अनाथ की सुधि लीजिए, कहत है मलूक दास, छोड़ि दे परायी आस रामधन पाई के अब करके शरण जाइए, दीनबंधु, दीनानाथ, मेरी सुध लीजिए। शुद्ध भावना रखकर भगवान की भक्ति करना, उन पर अटल विश्वास रखना और उनकी शरण में अपने को समर्पित कर देना ही, मानव का सच्चा धर्म है। इसी से सत्य की अर्थात परमात्मा की प्राप्ति संभव है। ज्यू जल और मलिन महा अंत, रागमिल्या दुई, जाति हि गंगा, सुंदर, शुद्ध करे तत्काल जु हे, जग माहि बड़ी सत्संग।। अर्थात "" मन चंचल है। उसे शांत रखने के लिए साधुओं की संगति अनिवार्य है। अशुद्ध जल भी गंगा में मिलकर, पवित्र बन जाता है। इसी तरह सत्संग के प्रभाव से बुद्धि का परिष्कार होता है तथा दुष्ट प्रकृति का मनुष्य भी गुणवान बन जाता है। नरहरि चंचल हे मति मेरी, कैसे भगति कर्रूँ मैं तेरी, सब घट अंतर रमे निरंतर, मैं देखन नहीं गाना। अर्थात् ""बुद्धि चंचल है, इसलिए भक्ति करने में कठिनाई होती है। अतः आवश्यकता है, इस चंचल मति को शांत करने की, ताकि ध्यान में मन लग सके। इसी घट अर्थात् सबके हृदय के भीतर निरंतर राम का निवास है, लेकिन उन्हें देखने की कला में हम अनभिज्ञ है। अतः ध्यान द्वारा इसे देखने का प्रयास करना चाहिए। सांसारिक संकटों से छूटकारा पाने का यह एक अमोघ अपाय है। संतनाम संतोष हरिधरि, प्रेम मंगल गावही। मिसिहि सतगुरु शब्द पाव हि, फिर न भवजल अवाही। सत्य शब्द को संतोषपूर्वक ग्रहण करके प्रेमपूर्वक मंगलकारी भजन करना चाहिए। इसके लिए सतगुरु की शरण में जाना आवश्यक है। सतनाम निजु सार हे, सतहि करो विचार, जो दरिया गुअं गहि रहे, तो मिले शब्द सार। ज्ञान की प्राप्ति हेतु मार्गदर्शक अर्थात गुरु का होना अत्यावश्यक है। सत्य नाम ही मुख्य चीज है, इसी का चिंतन बराबर होना चाहिए। कबीर की तरह गुरुनानक ने भी आपसी सद्भाव एवं भाई चारे को बढावा देने पर जोर दिया :- हरि बिना तेरो कौन सहाई, तन छूटे कछु संग न जाई, जहां की तहां रही जाई, दयाल सदा दुख भंजन, तासे वेद लगाई।
सांप्रदायिक तनाव की स्थिति आज देश में सर्वाधिक चिंतनीय है। देश में संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं। आज हर वर्ष देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे का भड़क जाना और सैकड़ों बेगुनाहों का खून बह जाना, सामान्य बात हो गई है। १९४७ ई. में सांप्रदायिकता को आधार बनाकर देश का विभाजन कर दिया गया। यही सांप्रदायिकता की आग लगातार बढ़ती ही गई, अब तो स्थिति इतनी अधिक उत्तेजक हो गई है कि इस ओर सभी बुद्धिजीवियों और शुभ- चिंतकों का ध्यान आकृष्ट होने लगा है। प्रत्येक साल कही- न- कहीं दंगा होता रहता है। हजारों लोग हर दंगे में मारे जाते हैं। हजारों गिरफ्तारियाँ होती हैं। लाखों- करोड़ों की संपत्ति जला दी जाती है। यह सब आपसी धार्मिक मतभेदों की वजह से होता है। आवश्यकता है कि सभी धर्मों के प्रति आदर की भावना रखकर, भारत के समस्त नागरिकों को बंधुत्व की भावना सहयोगपूर्वक रहने के प्रति जागरुक किया जाए। हिंदू तुरुक की एक राह में, सतगुरु है बताई। कहै कबीर सुनहू हो संतों, राम न कहेउ खुदाई।। संत महात्मा कबीर ने सांप्रदायिकता का विरोध कड़े शब्दों में किया है। कबीर साहब से अधिक जोरदार शब्दों में सांप्रदायिक एकता का प्रतिपादन किसी ने नहीं किया। सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान। सो ब्राह्मण जो ब्राह्म गियाला, काजी जो जाने रहमान।। महात्मा के अनुसार सच्चा हिंदू या मुसलमान वही है, जो इमानदार है और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है। सारे अनर्थों की जड़ यही बेईमानी है। आदमी बईमान हुआ, तब सब अनर्थ कामों की शुरुआत हो गई। आज समाज में चारों तरफ बेईमानी के कारण ही वातावरण दुखी और असहनीय हो रहा है। आज का मनुष्य एक ओर ईश्वर की पूजा करता है और दूसरी ओर मनुष्य का तिरस्कार करता है। प्रेम के महत्व को कबीर साहब इस प्रकार बताते हैं :- पोथी पढि- पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई अच्छर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। कबीर के अनुसार प्रेम ही ऐसा तत्व है, जो पारस्परिक मैत्री का भाव लाता है और कटुता को समाप्त करता है। काहि कबीर वे दूनों भूले, रामहि किन्हु न पायो। वे खस्सी वे गाय कटावै, वादाहि जन्म गँवायो।। जेते औरत मरद उवासी, सो सब रुप तुम्हारा। कबीर अल्ह राम का, सो गुरु पीर हमारा।। हिंदू- मुस्लिम एकता के लिए कबीर के उपदेश और उनके द्वारा किया गया कार्य आज सामान्य लोगों के अंदर फैलाने और बताने आवश्यक है। कबीर ने धार्मिक रुढियों उपासना संबंधी मूढ मान्यताओं तथा मंदिर- मस्जिद विष्यक अंध आस्थाओं के अंतर्विरोधों को निर्ममतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था। हिंदू कहे वह राम हमारा, तुरुक कहे रहिमाना
जिन दिनों कबीर दास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदूओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलित थी। कोई वेद का दिवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान- पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे, जो मदिरा के सेवन ही में सब कुछ पाना चाहता था तथा कुछ लोग तंत्र- मंत्र, औषधादि की करामात को अपनाए हुआ था। इक पठहि पाठ, इक भी उदास, इक नगन निरन्तर रहै निवास, इक जीग जुगुति तन खनि, इक राम नाम संग रहे लीना। कबीर ने अपने चतुर्दिक जो कुछ भी देखा- सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया :- ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै।। कबीर दास ने जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित विडम्बना देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया :- पंडित देखहु मन मुंह जानी। कछु धै छूति कहां ते उपजी, तबहि छूति तुम मानी। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी। तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद, हम कत लौहू तुम कत दूध, जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया। महात्मा कबीर साहब ब्राह्मण के अभिमान यह कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए ? इस प्रकार कबीर ने समाज व्यवस्था पर नुकीले एवं मर्मभेदी अंदाज से प्रहार किया। समाज में व्याप्त आडंबर, कुरीति, व्याभिचार, झूठ और पाखंड देखकर वे उत्तेजित हो जाते और चाहते कि जन- साधारण को इस प्रकार के आडम्बर एवं विभेदों से मुक्ति मिले और उनके जीवन में सुख- आनंद का संचार हो। महात्मा कबीर के पास अध्यात्मिक ज्ञान था और इसी ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे :- आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढि चलें, एक बंधे जंजीर। अपने कर्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना निश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। समाज व्याप्त कुरीतियों करने और जन- समुदाय में सुख- शान्ति लाने के लिए कबीर एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, वह है आध्यात्म। वे चाहते हैं कि मानव इसका सेवन नियमित रुप से करे। महात्मा कबीर दास के सुधार का प्रभाव जनता पर बड़ी तेजी से पड़ रहा था और वह वर्ण- व्यवस्था के तंत्र को तोड़ रहे थे, उतने ही तेजी से व्यवस्था के पक्षधरों ने उनका विरोध भी किया। संत के आस- पास, तरह- तरह के विरोधों और चुनौतियों की एक दुनिया खड़ी कर दी। उन्होंने सभी चुनौतियों का बड़ी ताकत के साथ मुकाबला किया। इसके साथ ही अपनी आवाज भी बुलंद करते रहे और विरोधियों को बड़ी फटकार लगाते रहे। तू राम न जपहि अभागी, वेद पुरान पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा, राम नाम तत समझत नाहीं, अति पढ़े मुखि छारा।। इसी प्रकार कबीर अपने नीति परक, मंगलकारी सुझावों के द्वारा जनता को आगाह करते रहे ओर चेतावनी देते रहे कि मेरी बात ध्यान से सुनो और उस पर अमल करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा। घर- घर हम सबसों कही, सवद न सुने हमारा। ते भव सागर डुबना, लख चौरासी धारा।। कबीर साहब समाज में तुरंत परिवर्तन चाहते थे। आशानुकूल परिवर्तन नहीं होते देखकर वे व्यथित हो उठते थे। उन्हें दुख होता था कि उनकी आवाज पर उनके सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है। आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है, जो कबीर काल में थी। सामाजिक आडंबर, भेद- भाव, ऊँच- नीच की भावना आज भी समाज में व्याप्त है। व्याभिचार और भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। आए दिन समाचार पत्रों आग लगी, दहेज मौत, लूट, हत्या और आत्महत्या की खबरें छपती रहती हैं। समाज के सब स्तर पर यही स्थिति है। ""राजकीय अस्पतालों में जो रोगी इलाज के लिए भर्ती होते हैं, उन्हें भर पेट भोजन और साधारण औषधि भी नहीं मिलती। इसके अलावे अस्पताल में कई तरह की अव्यवस्था और अनियमितता है।'' देश के संतों, चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों ने बराबर इस बात की उद्घोषणा की है कि ""नीति- विहीन शासन कभी सफल नहीं हो सकता। नीति और सदाचार अध्यात्म की जड़ है। देश की अवनति तथा सामाजिक दूरव्यवस्था का मुख्य कारण यही है कि आज हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भूल कर पाश्चात्य चकाचौंध की ओर आकर्षित हो गए हैं। ऊपरी आडंबर और शान- शौकत को ही मुख्य वस्तु मान कर हम अपनी शालीनता, गरिमा तथा जीवन मूल्यों को भूल गए हैं, जिसका फल है - पतन, निराशा और दुख। आज के संसार में सब कुछ उल्टा हो रहा है और इसीलिए लोग सत्य का दर्शन नहीं कर पाते। कबीर- पंथ की परंपरा में स्वामी अलखानंद लिखते हैं :- सिंह ही से स्यार लड़ाई में जीति। साधु करे चोरि चोर को नीति। लड्डू लेई खात स्वाद आवे तीति। मरीच के खात स्वाद मीठ मीति। ऐसी ही ज्ञान देखो उल्टा रीति।। इस नाजुक परिस्थिति से अध्यात्मिकता तथा नैतिकता ही हमें उबार सकती है। कबीर- साहित्य ऐसे ही विचारों, भावनाओं और शिक्षाओं की गहरी है। उसमें अनमोल मोती गुंथे हैं। उन्होंने मानव जीवन के सभी पक्षों को स्पर्श किया है। अतः आज की स्थिति में कबीर साहित्य हमारा मार्ग दर्शन करने में पूर्ण रुप से सक्षम है। एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्रह्ममन को सुद्र। हमहुं राम का, तुमहुं राम का, राम का सब संसार।। कबीर का उपदेश सार्वभौम, सार्वजनिक, मानवतावादी तथा विश्वकल्याणकारी है। उन्होंने सामान्य मानव धर्म अथवा समाज की प्रतिष्ठा के लिए जिस साधन का प्रयोग किया था, वह सांसारिक न होकर आध्यात्मिक था। आधुनिक संदर्भ में कबीर का कहा गया उपदेश सभी दृष्टियों से प्रासंगिक है। जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत कर रहे हैं, वही उद्घोषणा कबीर ने पंद्रहवीं शताब्दी में की थी। अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है। आज के परिवेश में जरुरी है कि इसका प्रसार किया जाए, ताकि देश और समाज के लोग इससे लाभांवित हो सके।
पंद्रहवीं शताब्दी में संतकाल के प्रारंभ में सारा भारतीय वातावरण क्षुब्ध था। बहुत से पंडित जन इस क्षोभ का कारण खोजो में व्यस्त थे और अपने- अपने ढ़ंग पर समाज और धर्म को संभालने का प्रयत्न कर रहे थे। इस अराजकता का कारण इस्लाम जैसे एक सुसंगठित संप्रदाय का आगमन था। इसके बाद देश के उथल- पुथल वातावरण में महात्मा कबीर ने काफी संघर्ष किया और अपने कड़े विरोधों तथा उपदेशों से समाज को बदलने का पूरा प्रयास किया। सांप्रदयिक भेद- भाव को समाप्त करने और जनता के बीच खुशहाली लाने के लिए निमित्त संत- कबीर अपने समय के एक मजबूत स्तंभ साबित हुए। वे मूलतः आध्यात्मिक थे। इस कारण संसार और सांसारिकता के संबंध में उन्होंने अपने काल में जो कुछ कहा, उसमें भी आध्यात्मिक स्वर विशेष रुप से मुखर है। इनके काजी मुल्ला पीर पैगम्बर रोजा पछिम निवाज। इनके पूरब दिसा देव दिज पूजा ग्यारिसि गंगदिवाजा। कहे कबीर दास फकीरा अपनी राह चलि भाई। हिंदू तुरुक का करता एकै ता गति लखी न जाई। कबीर- व्यवहार में भेद- भाव और भिन्नता रहने के कारण सांप्रदायिक कटुता बराबर बनी रही। कबीर दास इसी कटुता को मिटाकर, भाई चारे की भावना का प्रसार करना चाहते थे। उन्होंने जोरदार शब्दों में यह घोषणा की कि राम और रहीम में जरा भी अंतर नहीं है :- कबीर ने अल्लाह और राम दोनों को एक मानकर उनकी वंदना की है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उन्होंने अध्यात्म के इस चरम शिखर की अनुभूति कर ली थी, जहाँ सभी भिन्नता, विरोध- अवरोध तथा समग्र द्वेैत- अद्वेैत में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। प्रमुख बात यह है कि वे हिंदू- मुसलमान के जातीय और धार्मिक मतों के वैमनष्य को मिटाकर उन्हें उस मानवीय अद्वेैत धरातल पर प्रतिष्ठित करने में मानवता और आध्यात्म के एक महान नेता के समान प्रयत्नशील हैं। उनका विश्वास था कि ""सत्य के प्रचार से ही वैमनष्य की भावना मिटाई जा सकती है। इस समस्या के समाधान हेतु, कबीर ने जो रास्ता अपनाया था, वह वास्तव में लोक मंगलकारी और समयानुकूल था। अल्लाह और राम की इसी अद्वेैत अभेद और अभिन्न भूमिका की अनुमति के माध्यम से उन्होंने हिदूं- मुसलमान दोनों को गलत कार्य पर चलने के लिए वर्जित किया और लगातार फटकार लगाई। ना जाने तेरा साहब कैसा है, मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे, क्या साहब तेरा बहिरा है, पंडित होय के आसन मारे लंबी माला जपता है। अंतर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है। हिंदू- मुसलमान दोनों का विश्वास भगवान में है। कबीर ने इसी विश्वास के बल पर दोनों जातियों को एक करने का प्रयत्न किया। भाईचारे की भावना उत्पन्न करने की चेष्टा की। सबद सरुपी जिव- पिव बुझों, छोड़ो भय की ढेक। कहे कबीर और नहिं दूज। जुग- जुग हम तुम एक। कबीर शब्द- साधना पर जोर दे रहे हैं। इनका कथन है, तुम श्रम तज कर शब्द साधना करो और अमृत रस का पान करो, हम तुम कोई भेद नहीं हैं, हम दोनों इसी एक पिता की संतान हैं। इसी अर्थ में कबीर दास हिंदू और मुसलमान के स्वयं विधायक हैं। बड़े कठोर तप, त्याग, बलिदान और संकल्प शक्ति को अपना कवच बनाकर भारत की जनता ने अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को प्राप्त कर ली, लेकिन इसके साथ ही सांप्रदायिकता की लहर ने इस आनंद बेला में विष घोल दिया। भारत का विभाजन हुआ। इस विभाजन के बाद असंख्य जानें गई, लाखों घर तबाह हुए और बूढ़े, बच्चे, जवान, हिंदू, मुस्लिम सब समाज विरोधी तत्वों के शिकार हुए। इन तमाम स्थितियों से निबटने के लिए मानवतावादी सुधार की आवश्यकता थी, यह काम अध्यात्म से ही संभव था। कबीर ने अपने समय और अब हमलोग भी एक दिन चले जाएँगे। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन अल्प है। इस अवधि का सदुपयोग इस स्मरण में करना चाहिए। सांसारिक हर्ष- विषाद को विशेष महत्व नहीं देना चाहिए। पंडितों का ढोंगपूर्ण रवैया देखकर उन्हें चेतावनी देते हुए कहते हैं :- पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है, अंतर तेरे कपट कतरनी, सो सो भी साहब लगता है, ऊँचा निचा महल बनाया, गहरी नेव जमाता है, कहत कबीर सुनो भाई साधो हरि जैसे को तैसा है। कबीर शोषणकर्ता को रोषपूर्ण आगाह करते है कि भगवान के दरबार में न्याय होने पर उन्हें अपने किए का फल अवश्य भुगतना पड़ेगा। दूसरी ओर निरीह जनता को वे समझाते हुए कहते हैं :- कबीर नौवति आपणी, दिन दस लेहु बजाई, ऐ पुर पारन, एक गली, बहुरि न देखें आई। महात्मा कबीर कहते हैं कि यह जीवन कुछ ही दिनों के लिए मिला है, अतः इसका उपयोग सार्थक ढंग से खुब आनंदपूर्वक करना चाहिए। जो करेंगे सो भरेंगे, तू क्यों भयो उदास, कछु लेना न देना, मगन रहना, कहे कबीर सुनो भाई साधो, गुरु चरण में लपटे रहना। ""महात्मा कबीर साहब संतप्त जनता को समझाते हुए कहते हैं कि कर्तव्य निर्विकार रुप से करो, व्यर्थ के प्रपंच में मत पड़ो, सर्वदा अपने मन को गुरु में लगाए रहो।'' जीवित ही कछु कीजै, हरि राम रसाइन पीजै। महात्मा कबीर दास ने पीड़ित जनता के दुख- दर्द को दूर करने के लिए ""राम रसायन'' का आविष्कार किया। कबीर साहब ने पहली बार जनता को उसकी विपलता में ही खुश रहने का संदेश दिया। कबीर मध्यकाल के क्रांतिपुरुष थे। उन्होंने देश की अंदर और बाहर की परिस्थितियों पर एक ही साथ धावा बोलकर, समाज और भावलोक को जो प्रेरणा दी, उसे न तो इतिहास भुला सकता है और न ही साहित्य इतनी बलिष्ठ रुढियों पर जिस साहस और शक्ति से प्रहार किया, यह देखते ही बनता है। संतों पांडे निपुण कसाई, बकरा मारि भैंसा पर धावै, दिल में दर्द न आई, आतमराम पलक में दिन से, रुधिर की नदी बहाई। कबीर ने समाज की दुर्बलता और अद्योगति को बड़ी करुणा से देखकर, उसे ऊपर उठाने के मौलिक प्रयत्न किया। उन्होंने भय, भत्र्सना और भक्ति जैसे अस्रों का उपयोग राजनैतिक विभिषिकाओं और सामाजिक विषमताओं जैसे शत्रु को परास्त करने के लिए किया। कबीर साहब यह बात समझ चुके थे कि इन शत्रुओं के विनाश होने पर ही जनता का त्राण मिल सकता है। अतः उनका सारा विरोध असत्य, हिंसा और दुराग्रह से था। उनका उद्देश्य जीवन के प्रति आशा पैदा करना था। कबीर का तू चित वे, तेरा च्यता होई, अण च्यता हरि जो करै, जो तोहि च्यंत नहो। महात्मा कबीर शोकग्रस्त जनता को सांत्वना देते हैं ""तुम चिंता क्यों करते हो ? सारी चिंता छोड़कर प्रभु स्मरण करो।'' केवल सत्य विचारा, जिनका सदा अहार, करे कबीर सुनो भई साधो, तरे सहित परिवार। कब उनके अनुसार जो सत्यवादी होता है, उसका तो भला होता ही है, साथ- साथ उसके सारे परिवार का भी भला होता है और वे लोग सुख पाते हैं। वह कहते हैं, सारे अनर्थों की जड़, असत्य और अन्याय है, इनका निर्मूल होने पर ही शुभ की कल्पना की जा सकती है। इसी अध्यात्म का सहारा लेकर हिंदू- मुस्लिम के भेद- भाव को मिटाने का प्रयत्न किया था, इसके साथ- साथ ही उन्होंने अपने नीतिपरक पदों के द्वारा जनता का मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न किया था। इसके साथ- साथ ही उन्होंने अपने नीतिपरक पदों के द्वारा जनता का मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न किया था। आज के परिवेश में भी इन्हीं उपायों की आवश्यकता है। सांप्रदायिक मतभेदों या दंगों का कारण अज्ञान या नासमझी है। इस नासमझी या अज्ञान को दूर करने के लिए कबीर दास द्वारा बताए गए उपायों का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। कबीर की वाणी ही समस्त समस्याओं का निवारण करने में समर्थ है। ऊँच- नीच, जाति- पाति का भेद मिटाकर सबको एक समान सामाजिक स्तर देने का कार्य किया। आज के संदर्भ में भी इसी चीज की जरुरत है। गुप्त प्रगट है एकै दुधा, काको कहिए वामन- शुद्रा झूठो गर्व भूलो मति कोई, हिंदू तुरुक झूठ कुल दोई।। वर्तमान समस्याएँ चाहे सांप्रदायिक हो चाहे वैयक्तिक, सबका समुचित समाधान नैतिक मूल्य प्रस्तुत करते हैं। कबीर दर्शन में जाति- धर्म का कोई बंधन स्वीकार नहीं है। सारे अलगाववादी विधानों को तोड़कर वह एक शुद्र मानव जाति का निर्माण करता है, इसलिए आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता बढ़ गई है।
सत गहे, सतगुरु को चीन्हे, सतनाम विश्वासा, कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा। वे कहते, प्रत्येक मानव को गुरु भक्ति और साधन का अभ्यास करना चाहिए। इस सत्य की प्राप्ति से सब अवरोध समाप्त हो जाते हैं। जो सुख राम भजन में, वह सुख नहीं अमीरी में। सुख का आधार धन- संपत्ति नहीं है। इसके अभाव में भी मानव सुख- शांति का जीवन जी सकता है। चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह। वे कहते हैं, धरती पर सभी कष्टों की जड़ वासना है, इसके मिटते ही चिंता भी समाप्त हो जाती है और शांति स्वमेव आने लगती है। कबीर के कहने का तात्पर्य है कि पूजा- पाठ साधना कोई शुष्क चीज नहीं है, बल्कि इसमें आनंद है, तृप्ति है और साथ ही सभी समस्याओं का समाधान। इसलिए इसको जीवन में सर्वोपरि स्थान देना चाहिए। साधना के प्रति लोगों के हृदय में आकर्षण भाव लाने हेतु उन्होंने अपना अनुभव बताया। इस घट अंतर बाग बगीचे, इसी में सिरजन हारा, इस घट अंतर सात समुदर इसी में नौ लख तारा। गुरु के बताए साधन पर चलकर ध्यान का अभ्यास करने को वे कहते हैं। इससे दुखों का अंत होगा और अंतर प्रकाश मिलेगा। गुरु भक्ति रखकर साधन पथ पर चलनेवाले सभी लोगों को आंतरिक अनुभूति मिलती है। कबीर का प्रेम कंलि खोटा जग अंधेरा, शब्द न माने कोय, जो कहा न माने, दे धक्का दुई और। महात्मा कबीर किसी भी स्थिति में हार मानने वाले नहीं थे। वे गलत लोगों को ठीक रास्ते पर लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने दो- चार धक्के खाना भी पसंद था। इस प्रकार कहा जाता है कि कबीर लौह पुरुष थे। वे मानव को प्रेम को अपनाने कहते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर का दूसरा नाम प्रेम है। इसी तत्व को अपनाने पर जीवन की बहुत सारी समस्याएँ स्वतः सुलझ जाती है। मैं कहता सुरजनहारी, तू राख्यो अरुझाई राखे कबीर साहब सदा सीधे ढ़ग से जीवन जीने की कला बताते थे। उनका कहना था कि प्रेम के अभाव में यह जीवन नारकीय बन जाता है। कबीर प्याला प्रेम का अंतर दिया लगाया, रोम- रोम से रमि रम्या और अमल क्या लाय, कबीर बादल प्रेम का हम पर वरस्या आई, अतरि भीगी आत्मा, हरी भई बन आई। यही "प्रेम' सब कुछ है, जिसे पान कर कबीर धन्य हो गये। इस बादल रुपी प्रेम की वर्षा में स्नान कर कबीर की आत्मा तृप्त हो गई और उसका मन आनंद विभोर हो उठा। वे कहते हैं, प्रेम ही सर्व है। उसी के आधार पर व्यक्ति एक दूसरे के साथ बंधुत्व की भावना को जागृत कर सकता है। आज के परिवेश में इसी बंधुत्व की भावना के प्रसार की नितांत आवश्यकता है। कबीर साहब की वाणी आज भी हमें संदेश दे रही है कि संसार में कामयाब होने का एक मात्र मार्ग धर्म और समाज की एकता है।
कई शोधकर्ताओं के लिए कबीर का जीवन आज भी रहस्यपूर्ण है। उनकी जन्मतिथि दुनिया के लिए एक पहेली है और इसे लेकर लगातार कई बहसें चलती रही हैं। वाराणसी के ग्रामीणों का मानना है कि कवि लहरतारा तालाब पर कमल के फूल में प्रकट हुए थे और ऋषि अष्टानंद जी स्वयं इस घटना के साक्षी थे। यह भी संदेह है कि उसे नीरू और उसकी पत्नी नीमा नाम के मुस्लिम बुनकरों ने पाया था। उसके बाद गरीब मुस्लिम परिवार ने पूरे दिल से उन्हें अपना लिया और अपने माता-पिता की तरह पाला। तब संत ने एक रहस्यवादी गृहस्थ का जीवन जीया। ऐसा माना जाता है कि संत का परिवार अभी भी वाराणसी के कबीर चौरा में रहता है। संत कबीर का दर्शन एवं काव्य • कबीर दास पहले भारतीय कवि और संत हैं जिन्होंने धर्मों के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग बताकर हिंदू धर्म और इस्लाम का समन्वय किया। तब हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर उनके दर्शन का अनुसरण किया। उनका मानना है कि हम जिस भी रिश्ते में रहते हैं, उसमें दो सिद्धांत होते हैं, यानी परमात्मा और जीवात्मा। • साइट ने सुझाव दिया कि मोक्ष रिश्ते के इन दिव्य सिद्धांतों को एकजुट करने की प्रक्रिया है। हालाँकि, कबीर का बीजक उनके आध्यात्मिक पथ के दर्शन को दर्शाता है। उन्होंने भक्ति और सूफी विचारों और ईश्वर में एकता पर अपना भरोसा दिखाया। • कवि अक्सर अपने तथ्यात्मक गुरु का अनुसरण करते हुए अपनी कविताओं की रचना स्पष्ट एवं संक्षिप्त शैली में करते थे। कविताएँ श्लोक और साखी थीं। कविताओं ने कबीर पंथियों को उनकी विचारधाराओं पर चलने का एक और रास्ता दिया। कबीर के महान कार्य • सूफ़ी कवि ने दोहा और गीत सहित 72 पुस्तकें लिखीं। उनके कुछ महत्वपूर्ण संग्रहों में कबीर बीजक, पवित्र आगम, वसंत, मंगल, सुखनिधान, सबदस, साखियाँ और रेख्ता शामिल हैं। • उन्होंने जीवन के मूल्यों को दर्शाते हुए अपने दोहे निर्भीकता और स्वाभाविकता से लिखे। इसके अलावा, उन्होंने अपने दोहे और दोहों में दुनिया के भाव को शामिल किया जो किसी भी तुलना से परे है। कबीर का देश के लिए योगदान • संत कबीर ने मध्यकालीन भारत में भक्ति और सूफी आंदोलनों का नेतृत्व किया। कवि का जीवन चक्र काशी क्षेत्र पर केंद्रित है, जो जुलाहा जाति से संबंधित है। हालाँकि, भक्ति आंदोलन में उनका योगदान देश के कर्मकांड और तपस्वी तरीकों पर सख्ती से आपत्ति जताता है। अच्छाई और समृद्धि के बारे में उनकी कही बातों ने लोगों को यह अहसास कराया कि अच्छाई की नजर में हर कोई बराबर है। उन्होंने कभी किसी के बीच भेदभाव नहीं किया, चाहे वह व्यक्ति नीची जाति का हो, वेश्या या उच्च जाति का। • संत अहिंसा के प्रवर्तक और अनुयायी थे, उन्होंने अपने आंदोलन और दोहों के माध्यम से लोगों का मन बदल दिया। हालाँकि कई ब्राह्मणों ने उनके कार्यों के लिए उनकी आलोचना की, लेकिन उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय, उन्होंने हमेशा प्रेम, शांति और समृद्धि का मार्ग अपनाया जिससे दुनिया में बदलाव आया। निष्कर्ष कबीर दास एक महान रहस्यवादी कवि थे जिन्होंने नैतिकता, मानवता और आध्यात्मिकता के बारे में वास्तविक पाठ पढ़ाया। उन्होंने अपने गुरु रामानंद के निर्देशों का पालन किया और समृद्धि के पथ पर चल पड़े। संत ने अपने उपदेशों, कविताओं, पुस्तकों और विश्वासों के माध्यम से लोगों की आँखें खोलीं। वह अहिंसा, प्रेम और शांति के महान अनुयायी थे। आज, कई कबीर पंथी वाराणसी के कबीर चौरा में उनकी पूजा करते हैं। हालाँकि कवि के जन्म और जैविक माता-पिता का कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन उनकी यात्रा पौराणिक है और वास्तविक दुनिया की मानवता सिखाती है।
Varanasi is one of the oldest living cities of the world. It can rightly lay claim to being a confluence of cultures and a repository of history. Known as Benaras and Kashi, the city on the banks of the holy Ganga is located in Uttar Pradesh, about 320 kilometers from Delhi. For Hindus it is one of the holiest of the seven sacred cities. Jains revere the city. Buddhists consider it an important pilgrimage spot. Benaras silk is the pride of India with an ancient tradition behind it.
Archaeological finds indicate that the city could well have been inhabited since 3000 BC or even before that. Kashi is its original name with roots in Hindu mythology. Its ancient names include Ramya, Anandakannana, Mahasmasana, Surandhana and Brahma Vardha. Hindu mythology states that this is the original home of Lord Shiva and Parvati. Shiva is said to have cut off one head of Brahma and it dropped from his hand and disappeared in the ground here. The Pandavas visited Kashi to pray to Lord Shiva to parden their sins. Later it came to be known as Varanasi, taking its name from the two Rivers Assi and Varuna. These two are tributaries of Ganga and the land in between came to be known as Varanasi. One mythological story worth knowing is about Divodasa. Ripunjaya, a sage of royal descent, was performing penance when Brahma appeared before him and asked him to become king Divodasa and save humanity as well as reform Dharma. He promised whereupon Brahma and other Gods left for Heaven. He ruled for thousands of years and the gods became jealous. Lord Shiva wishes to visit Varanasi but he could not set feet here due to Brahma’s boon to Divodasa. He sent six yoginis to Kashi and also the Sun God who found the city so perfect they made it their residence. Shiva asked Brahma to do something to remove Divodasa. Brahma disguised himself as a Sadhu, entered Kashi and instructed Divodasa to arrange an Ashwamedha Yagna in which he succeeded. Shiva then approached Lord Vishnu. Vishnu sent Ganesha, Lord Shiva’s son, as an astrologer. He prophesized that a holy man would arrive on the eighth day but Divodasa ignored this. Lord Vishnu appeared as a monk and deceived Divodasa into giving up his kinghood. Lord Shiva could return to Kashi.
It is believed that invading Aryans settled in the Ganga valley and Varanasi became the centre of Aryan religion. At the same time, the city flourished as a trade centre, its muslin highly valued in Europe in addition to its perfumes, silk, ivory and sculpture. By the 6th century Varanasi was a flourishing metropolis. It was at this time that Lord Buddha delivered his sermon at Sarnath, just 10 km away. However, Varanasi or Kashi was and remained primarily a city devoted to Shiva. References to the city can be found in ancient Hindu texts like Puranas, Vedas and Upanishads. Tulsidas is believed to have written Ram Charit Manas in this city.
While little is known about Kashi from the time of the Ramayana and Mahabharata, there is no doubt that Varanasi became an international trade and industrial centre even as spirituality flourished here. The city had temples, most of them dedicated to Shiva and pilgrimage flourished. Even Buddha chose Sarnath to deliver his first sermon around 528 BCE. Varanasi gained repute as one of the sixteen Mahajanapadas or kingdoms. Xuanzang, the Chinese traveller, chronicled Varanasi as a very rich place in 635 AD. Foreign travellers visited and documented Varanasi. Adi Shankaracharya came here and established worship of Shiva during the 8th century. Varanasi supplied muslin, silm, perfumes and ivory carvings to the world. Chandradeva made it the capital of his kingdom in 1090 and Varanasi flourished even more during the Mauryan era, becoming a centre of culture, religion and education. Guru Nanak visited Varanasi in 507 and even before him, Ravidas earned fame as a spiritual figure. Kabir belonged to Varanasi.
Muslims were fond of Varanasi as they could show their prowess and domination by destroying the Hindu temples. Looting and plundering the temples gave them an uncanny demonic pleasure. In the year 1194 Qutb-Ud-Din- Aibak destroyed many of the temples of Varanasi and the same sort of demolishing activities continued under the rule of Feroz- Shah-Tuglaq in the year 1376. The next was Ibrahim Lodi who demolished several Hindu shrines and temples of Varanasi around the year 1496. Suppression of the Hindus and demolishing activities in Varanasi continued under the Mughal rule as well. But when Akbar came to throne, his philosophy of secularism gave Varanasi some relief and that’s the time when Hinduism and native culture flourished in Varanasi. However, the successors of Akbar were again intolerant to Hinduism and the city of Akbar again suffered ruthless attacks in the hands of Akbar’s successors. Aurangzeb, particularly was very intolerant to Hinduism and fierce attacks pushed the city into a chasm of deprivation, declination and demolition.
The Moguls declined and Varanasi flourished in the 18th century only to fall to the British. The British gained control over Varanasi, calling it Benaras State, and installed a puppet king Mansa Ram and then Balwant Singh. Benaras became a state under the British but Ramnagar became the capital. The Rebellion of 1857 saw hundreds of Indian troops massacred by the British Army.
After independence the state of Benaras merged with the Indian Government. Banaras grew as an industrial centre and as an educational centre with the famous Banaras Hindu University located here. Today, Banaras is a prime religious pilgrimage spot. To die in Banaras means one attains freedom from cycle of births and deaths. The latest is that the Prime Minister Mr Narendra Modi was elected as an MP from this city.